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साहित्य सूचना नहीं है, यह अनुभव से आता है

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:11 Aug 2017 6:11 PM GMT

साहित्य सूचना नहीं है, यह अनुभव से आता है

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मैत्रेयी पुष्पा/उपाध्यक्ष हिंदी अकादमी, दिल्ली, से वरिष्ठ साक्षात्कारकर्ता, पत्रकार एवं साहित्यकार सुधांशु गुप्त की बातचीत --

इदन्नमम, फरिश्ते निकले, अलमा कबूतरी जैसे उपन्यासों की लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने पिछले दो दशकों में अपने लिए एक स्पेस तैयार किया है। वह समाज से लगातार संवाद करती रहीं। उन्होंने बंद कमरों में जीवन नहीं जिया बल्कि जीवन और अनुभवों का हासिल करने के लिए परंपराओं को भी तोड़ने में उन्हें कोई गुरेज नहीं हुआ। उनके उपन्यासों के किरदार मैनमेड किरदार नहीं है। बल्कि ये समाज के उस हिस्से से आते हैं जिन्हें हाशिये का समाज कहा जाता है। यही वजह है कि उनके लेखन में वैचारिकता भले कम हो लेकिन प"नीयता और गंभीर मुद्दे दिखाई पड़ते हैं। आजादी के 70 साल पूरे होने और इसके समानांतर साहित्यिक दुनिया के बदलने पर उनसे एक लंबी बातचीत हुई। पेश है उस बातचीत के कुछ अंश-
सवाल ः मैत्रेयी जी, लेखन की दुनिया में आजादी के सत्तर सालों का क्या अर्थ है?
मैत्रेयी ः देखिये...1947 से पहले तक हमारा देश, समाज आजादी के लिए लड़ रहा था। इस पूरे आंदोलन में लेखकों कवियों की भी अपनी भूमिका थी। वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिख रहे थे, कहानियां कविताएं लिखी जा रही थीं। लेकिन लेखकों के सामने इस बात का डर हमेशा रहता था कि उनकी रचनाएं फ्रतिबंधित हो सकती हैं, उन्हें सजा हो सकती है, लेकिन इस डर के बरक्स भी लेखन जारी था। फ्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त, वृन्दावनलाल वर्मा और तमाम दूसरे लेखक थे जो देश की आजादी के लिए लेखन कर रहे थे। फिर भी मन में ये विचार था कि देश आजाद होने के बाद हर तरह का डर निकल जाएगा, अपनी सरकार होगी और बेहतर लेखन किया जा सकेगा। जब देश आजाद हुआ तो सचमुच लेखकों को भी लगा कि रामराज्य आ गया है, अब वे निर्भीक होकर अपने मन का लिख पायेंगे। लिहाजा उस दौर में सपनों की, उम्मीदों की, देश की तरक्की की, पंचवर्षीय योजनाओं की, खेत खलिहानों पर, किसानों पर कहानियां और कविताएं लिखी जा रही थीं। उस दौर में नेहरू की फ्रशंसा में भी कई कविताएं लिखी जा रही थीं। उस दौर में साहित्यकार अपने समाज से ईमानदारी से जुड़ा था। वह अपने नेताओं पर विश्वास कर रहा था। तब भ्रष्टाचार और बेईमानी जैसी चीजें कम सुनाई देती थीं। उस समय मैं बहुत छोटी थी और गांव में रहती थीं। मुझे याद है पत्रिकाएं, अच्छा साहित्य गांवों तक पहुंचा रही थीं। लेखक अपने समाज से जुड़ा था। सरकार भी जनता की इच्छाओं और उम्मीदों को पूरा करने का भरसक फ्रयास कर रही थी। लेखक देश हित में लिख रहा था तो लेखकों के लिए भी आजादी का वही अर्थ था जो देश के लिए आजादी का अर्थ था। उनके भीतर यह भावना पैदा हो रही थी कि अब उनकी अपनी सरकार है, जो जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए काम कर रही है। उस दौर में मैथिलीशरण गुप्त, वृंदावन लाल वर्मा और दूसरे रचनाकारों ने बिना किसी भय के नैसर्गिक लेखन किया।
सवाल ः फिर इन उम्मीदों को कैसे झटका लगा, कैसे जनता का भरोसा सरकारों से उ"ने लगा?
मैत्रेयी ः फ्रेमचंद ने अपनी एक कहानी 'नमक का दारोगा' में रिश्वत न लेने की बात कही है। लेकिन आजादी के डेढ़ दो दशकों के बाद से हमने रिश्वत लेना शुरू कर दिया। हमें लगा कि आजादी का मतलब है अपने लिए आरामतलबी जुटाना। समाज के दूसरे लोगों के साथ साथ रचनाकार भी इस कर्म में लग गया। और लेखन कहीं पीछे छूटने लगा।
सवाल ः मैर्तेयी जी, एक हाइपोथैटिकल सवाल है, अगर देश को आजादी न मिली होती तो लेखन कुछ अलग होता?
मैत्रेयी ः मुझे लगता है तब लेखन ज्यादा ईमानदारी से हो रहा होता। तब हमारे सामने देश को आजाद कराने का लक्ष्य होता। मुझे लगता है कि लेखन एक ऐसी चीज है जो आनंद में नहीं होता, वह हमेशा कष्ट में बेहतर होता है। इसलिए देश की आजादी ने हमें आरामतलब बनाया। सड़कें बनने लगीं, बांध बन गये, नौकरियां भी मिलने लगीं, वो नौकरियां जो पहले ब्रिटिश सरकार देती थी। धीरे धीरे रचनाकार भी सुविधाभोगी होने लगा। 'ईजीमनी' की अवधारणा समाज में आयी। पहले जो रचनाकार आजादी के लिए लड़ रहा था, अब वही रचनाकार अपने सुख सुविधाओं के लिए लड़ने लगा। साहित्य में भी वही दिखाई देने लगा। श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी इस बदलाव का फ्रतीक उपन्यास है।
सवाल ः गुजरे सत्तर सालों में लेखन के विषय कैसे बदले?
मैत्रेयी ः देखिये आजादी के साथ ही एक त्रासदी भी हमें मिली...विभाजन की त्रासदी। रचनाकारों ने विभाजन की पीड़ा को अपने साहित्य में खूब बेहतर ढंग से लिखा। यशपाल, खुशवंत सिंह, भीष्म साहनी तमाम ऐसे साहित्यकार हैं जिन्हें विभाजन के दर्द को अपना विषय बनाया। उस दौर में मुसलामानों को बचाने के अद्भुत फ्रयास मैंने देखे हैं। मैं जिस गांव में रहती थी, वहां गांव के फ्रधान इस बात पर अड़े हुए थे कि वे अपने गांव के मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं जाने देंगे। इसलिए हमारे गांव के मुसलमानों के नाम हिंदू नाम रखे गये। आश्चर्य की बात है कि आज भी उस गांव में मुसलमानों के हिंदू नाम पाये जाते हैं।
सवाल ः कुछ वर्ष और बीते...फिर साहित्य कैसे नयी कहानी तक पहुंचा, कैसे और क्यों ये आंदोलन खड़ा किया गया?
मैत्रेयी ः देखिये जब देशहित और राष्ट्र की बातें साहित्य से गायब हुईं और रचनाकारों ने साहित्य के विषय बदले। कहानी में निजता, स्त्री पुरुष संबंध, अजनबियत, बेरोजगारी जैसे विषय शामिल होते गये। उस समय मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर जैसे साहित्यकारों ने कुछ नया करने के लिए नयी कहानी के कान्सेप्ट को एक्जीक्यूट किया। इस आंदोलन ने साहित्यकारों के लिए देश से ऊपर निजी व्यक्ति को रखा। फ्रेम फ्रसंगों को फ्रमुखता से साहित्य का विषय बनाने में इस आंदोलन ने अहम भूमिका निभाई। वास्तव में इस आंदोलन ने रचनाकारों के लिए विषय की नयी दुनिया खोल दी। बाद में बहुत से ऐसे रचनाकार सामने आए नयी कहानी के आंदोलन से जुड़े और रचनाएं लिखीं। लेकिन मैं बार बार एक सवाल पूछती हूं कि इन सत्तर सालों में हमने किसानों की बातें कितनी कीं, मजदूरों की बातें कितनी कीं। वाम विचारधारा के लेखकों ने मजदूरों के विषय में तो बात की लेकिन किसानों की उन्होंने भी अनदेखी की। मेरा मानना है कि इन सत्तर सालों में हमारी जो सबसे बड़ी असफलता है वह है सरल भाषा में जनता तक अपनी बात न पहुंचा पाना। मेरा मानना है कि आप जनता के लेखक बनिये।
सवाल ः मैत्रेयी जी...पिछले दो तीन दशकों में नयी तकनालॉजी ने समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। लेखन पर इसका क्या फ्रभाव पड़ा?
मैत्रेयी ः मेरा साफतौर पर मानना है कि सूचना साहित्य नहीं हो सकती। नयी तकनालॉजी ने हमारे सामने सूचनाएं तो परोसीं, लेकिन अनुभव से हमें वंचित कर दिया। जबकि साहित्य अनुभवों से आता है, अनुभवों से ही विचार पैदा होता है। यही वजह है कि अब साहित्य में पहले जैसी आत्मीयता नहीं रही। एक और अहम बात है कि अब रचनाकार पार्ट टाइमर रचनाकार है। रचनाकर्म उसका मुख्य कर्म नहीं है। अपने मुख्य कर्म से जो समय मिलता है, उसमें वह साहित्य लिखता है। जबकि पहले फुल टाइमर थे। वे एक एक रचना के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया करते थे।
सवाल ः कुछ ऐसे उपन्यास जो आपकी निगाह में बेहद महत्वपूर्ण हैं?
मैत्रेयी ः सुरेंद्र वर्मा का मुझे चांद चाहिए, वीरेंद्र जैन का डूब, श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी, राही मासूम रजा का आधा गांव, फणीश्वर नाथ रेणु का मैला आंचल और परतीः परिकथा, अलका सरावगी का कलिकथा वाया बाईपास, गीतांजलि श्री का हमारा शहर उस बरस....और भी बहुत से उपन्यास हैं....ये मैंने अपनी पसंद के उपन्यास बताये हैं। ये कोई रैंकिंग नहीं है।

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