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दुनिया में हिंदी की बढ़ती धाक कितनी हकीकत, कितना फसाना..!

👤 Admin 1 | Updated on:21 April 2017 5:43 PM GMT

दुनिया में हिंदी की बढ़ती धाक     कितनी हकीकत, कितना फसाना..!

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लोकमित्र


हिंदी ने विश्वविजय कर लिया है और उसके इस अभियान का रथ बना है इंटरनेट। आज इंटरनेट में वाकई हिंदी अंग्रेजी को टक्कर दे रही है और हाल के सालों के कुछ शोधों को मानें तो हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गयी है। अगर इस दावे में कोई तकनीकी झोल भी हो तो मंडारिन के बाद तो दुनिया में हिंदी बोलने और सम्पर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल करने वाले लोग सबसे ज्यादा हैं ही। यह दावा तो चीन भी कर चुका है। सुनने में भले यह थोड़ा अटपटा लगे लेकिन सच यही है कि हिंदी को लेकर अगर अब कहीं हेय दृष्टि है, हिंदी को लेकर कहीं अगर कमतरी का एहसास है तो वह सिर्फ हिन्दुस्तान में ही ही है। दुनिया के स्तर पर तो हाल के दशकों में न केवल हिंदी का खूब मान-सम्मान बढ़ा है बल्कि खूब विस्तार भी हुआ है और जैसा कि पहले भी कहा गया है इसमें सबसे अहम् भूमिका इंटरनेट ने निभाई है। नेट या इंटरनेट की ही बदौलत आज हिंदी आभाषी दुनिया के वैश्विक पटल पर छा गयी है। लेकिन हिंदी को यह महत्व सुपर पॉवर के रूप में उभरते हिन्दुस्तान की राजनीतिक ताकत से नहीं मिली बल्कि विश्व के आर्थिक परिदृश्य पर मध्यवर्गीय उपभोक्ता बाजार के रूप में उभरने के चलते मिली है। यह भारत के दिनोंदिन बढ़ते उपभोक्ता बाजार का ही कमाल है कि आज दुनिया के 150 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। दुनिया के 50 से ज्यादा देशों में हिंदी बोली जाती है और दुनिया की 700 से ज्यादा बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में हाल के सालों में हिंदी सम्पर्क अधिकारी रखे गए हैं। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में तो पूरी की पूरी हिंदी टीम ही रखी गयी है। आज दुनिया के बहुराष्ट्रीय निगमों में हिंदी अधिकारी फ्रेंच और स्पेनिश अधिकारियों से ज्यादा और मंडारिन से बस थोड़े ही कम हैं। लब्बोलुआब यह कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार और कारोबार की दुनिया में आज हिंदी मंडारिन और अंग्रेजी जितनी ही महत्वपूर्ण हो गयी है। आज कारोबार की वजह से ही हिंदी सुदूर यूरोपीय, अमेरिकी और अफ्रीकी महादेशों तक में रोजमर्रा के उपयोग की भाषा बन रही है। लेकिन इससे बहुत फूलकर कुप्पा होने की जरुरत नहीं है; क्योंकि हिंदी की स्थिति वैसी ही है जैसे एक मायने में हमारी आबादी की स्थिति है। हम संख्या में तो बहुत ज्यादा हैं, चीन को छोड़कर दुनिया में सबसे ज्यादा। लेकिन हमारी यह भारी-भरकम आबादी किसी काम की नहीं है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि ह्यूमन रिसोर्स के पैमाने पर हमारी आबादी सबसे कम महत्वपूर्ण है; क्योंकि हममें से ज्यादातर लोग कच्ची मिट्टी के लोंदे के माफिक हैं। बेहद अनगढ़, बेहद अकुशल। कुछ-कुछ यही हाल खूब विस्तारित हुई और हो रही हिंदी की भी है। भले दुनिया के 150 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही हो लेकिन, हिंदी में विज्ञान, दर्शन, मनोविज्ञान या चिकित्सा विज्ञान कहीं नहीं पढ़ाया जा रहा। दुनिया तो छोड़िये हिन्दुस्तान में भी बस कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों में ही इन तमाम में से महज कुछ पढाये जाते हैं। हिंदी भाषा का इस्तेमाल आमतौर पर दुनिया के तमाम बाजार, बहुराष्ट्रीय निगम और लोग अपनी बात हमें समझाने या अपना माल बेचने के लिए सम्पर्क में सहायक बन सकने भर के लिए ही हिंदी सीख रहे हैं। इसे बाजार की भाषा में कहें तो हिंदी कुछ कमाकर नहीं ला रही, उलटे दुनिया वाले इसे सीखकर हमसे सिर्फ खर्च भर करा रहे हैं। देखा जाय तो इससे भाषा के मौखिक हो जाने का खतरा है। मुंबई जैसे शहर में यह खतरा साफ-साफ देखा पढ़ा और समझा भी जा सकता है, जहां लगभग हर कोई हिंदी बोलता है। मजदूर से लेकर अफसर तक के लिए, उत्तर-पूर्व से लेकर दक्षिण भारतीयों तक के लिए आपस में संपर्क की सबसे महत्वपूर्ण भाषा हिंदी है। लेकिन निर्णायक रूप से उत्पादन की भाषा हिंदी नहीं है। यहां तक कि उस बॉलीवुड की भी नहीं जो एक तरह से देखा जाए तो हिंदी की ही रोटी खा रहा है। दरअसल बॉलीवुड में सोचा इंग्लिश में जाता है। विमर्श अंग्रेजी की अगुवाई में खिचड़ी भाषा में किया जाता है, जिसमें "ाsस पारिभाषिक शब्द और शब्दावलियां तो अंग्रेजी की होती हैं लेकिन उन्हें एक दूसरे के भेजे में घुसेड़ने के लिए कई वैशाखियों का सहारा लेना पड़ता है। यह काम हिंदी में किया जाता है। कहने का मतलब यह है कि यह अच्छी बात तो है कि '"ंडा मतलब कोकाकोला' हिंदी में लिखा जा रहा है। लेकिन सोचा अंग्रेजी में ही जा रहा है और इसे सोच भी अंग्रेजी वाला ही रहा है। हमें इस कमजोर कड़ी पर भी ध्यान देना होगा। निःसंदेह यह खुशी और सम्मान की बात तो है कि आज हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप के नेपाल, बर्मा, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका जैसे देशों में रोजमर्रा के इस्तेमाल की भाषा बन रही है, मगर साथ में यह सवाल भी है कि क्या किसी देश में शोध और अध्ययन की भाषा भी बन रही है ? आज सिनेमा दुनिया के तमाम देशों में फ्रेंच में पढ़ाया जा रहा है, फैशन इटैलिक में पढ़ाया जा रहा है पर क्या योग भी कहीं हिंदी में पढ़ाया जा रहा है ? क्या आयुर्वेद भी कहीं हिंदी में पढ़ाया जा रहा है ? क्या हिंदी सिनेमा भी कहीं हिंदी में पढ़ाया जा रहा है ? जवाब है नहीं। इसलिए हमें बढ़ती हुई हिंदी से खुश होने के साथ-साथ यह देखना भी होगा कि क्या वास्तव में यह "ाsस रूप से आगे जाना है? या एक कदम आगे जाकर दो कदम पीछे लौट आना है ?

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