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सआदत हसन मंटो; अपने समय से पहले का कहानीकार

👤 Admin 1 | Updated on:14 May 2017 3:01 PM GMT

सआदत हसन मंटो; अपने समय से पहले का कहानीकार

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धीरज बसाक

बीसवीं शताब्दी में दुनिया में दो ही बड़े गद्यकार हुए हैं, जिन्होंने बिना उपन्यास लिखे भी खुद को दिग्गज साहित्यकार मनवाया है। उनमें से एक हैं एंटोन चेखव और दूसरे सआदत हसन मंटो। कमलेश्वर मंटो के बारे में कहते थे कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्" कहानीकार है। लेकिन हैरानी की बात है कि मंटो को लेकर एक ही समय में अनगिनत लोगों के अनगिनत विचार थे। कोई उन्हें अश्लील अफसानानिगार मानता था तो कोई पागल लेखक। कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनकी कसौटियों के मुताबिक तो मंटों वास्तव में लेखक ही नहीं हैं।

सवाल है आखिर मंटो को लेकर लोगों के इतने अलग-अलग विचार क्यों थे ? इसका कारण यह है कि मंटो अपने समय से आगे के ही नहीं बल्कि बहुत आगे के कहानीकार थे। सच तो यह है कि वह पूरी तरह से किसी की समझ में नहीं आते थे। इसीलिये तो पाकिस्तान की सरकार तक कभी उन्हें जेल में डाल देती थी, कभी देश का सबसे बड़ा पुरस्कार दे देती थी। 11 मई, 1912, समराला, पंजाब में पैदा हुए मंटो जितने अच्छे कहानीकार थे, उतने ही फ्रखर पत्रकार और पटकथाकार भी थे। उन्होंने फिल्मों की पटकथाएं और रेडियों के लिए नाटक भी खूब उम्दा लिखे है।

मंटो जिस परिवार में पैदा हुए थे। उसे पुश्तैनी बैरिस्टरों का परिवार माना जाता था इसलिए उनके पिता की हसरत थी कि परिवार के दूसरे लोगों की तरह वह भी नामी बैरिस्टर बनें। क्योंकि उनके पिता गुलाम हसन खुद बहुत नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। लेकिन मंटो का मन कभी भी बैरिस्टरी में नहीं रुचता था। उलटे वह घर में सुने मुकदमों के किस्सों को खूबसूरत कहानियों में तब्दील कर दिया करते थे, जो उनकी मां सरदार बेगम, जिन्हें मंटो बीबीजान कहते थे, को बहुत पसंद आती थीं। कहते हैं कभी-कभी मंटो के पिता गुस्से में अपनी बीबी से कहते थे, 'तुम इसकी इस हरकत को बढ़ावा देकर देख लेना गपोड़ी बना डालोगी।' गपोड़ी यानी कथाकार। बाद में वही हुआ लेकिन उनके बचपन में उन्हें जानने वाला कोई शख्स कम से कम यह कल्पना तो नहीं कर सकता था कि वह उर्दू के विश्व फ्रसिद्ध कहानीकार बन सकते हैं। क्योंकि बचपन में उनकी उर्दू बहुत खराब थी। वह एंट्रेंस की परीक्षा में अपनी कमजोर उर्दू की वजह से ही फेल हो गए थे। वह भी एक नहीं दो-दो बार।

हालांकि बचपन में मंटो होशियार बहुत मगर कुछ ज्यादा ही शरारती हुआ करते थे। मंटो का विवाह सफिया से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुईं। मंटो की कहानियों की बीते कुछ दशकों में जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद उर्दू और हिन्दी की क्या दुनिया की किसी भी भाषा के कहानीकार की नहीं हुई। चेखव के अलावा वह अकेले कथाकार हैं जो सिर्फ अपनी कहानियों के बदौलत सुपरहिट हैं। मंटो ने अपने साहित्यिक सफर में एक भी उपन्यास नहीं लिखा। मंटो ने एंट्रेंस तक की पढ़ाई अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी। साल 1931 में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाखिला लिया। उन दिनों पूरे देश में और खासतौर पर अमृतसर में आजादी का आंदोलन पूरे उभार पर था। जलियांवाला बाग का नरसंहार 1919 में हो चुका था और उसके लोमहर्षक किस्से से पूरा देश खुद को झकझोरा हुआ पाता था। जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, तब यह घटना घटी थी जिसका बाल मंटो के दिलो-दिमाग में बहुत गहरा असर हुआ था।

मंटो ने उस उम्र में ही एक कहानी इस काण्ड पर लिखी थी, जिसका शीर्षक तमाशा था। 'तमाशा' मंटो की पहली कहानी थी। इस कहानी में एक सात साल के बच्चे की जलियांवाला नरसंहार को लेकर क्या सोच बनती है, इसे बखूबी पकड़ा जा सकता है और कहा जा सकता है कि होनहार बिरवा के पत्ते चीकने ही होते हैं। जब मंटो 20 साल के थे यानी साल 1932 में मंटो के पिता का देहांत हो गया। इससे उनकी सोच बदल गयी अब तो उन्हें सबसे पहले घर का कमाऊ सदस्य बनना था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मंटो जितना जीये उसको देखते हुए बहुत ज्यादा लिखा है। लेकिन टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, खबरदार, करामात, बेखबरी का फायदा, पेशकश, कम्युनिज्म, तमाशा, बू, "ंडा गोश्त, काली शलवार। उनकी ये कुछ इतनी मशहूर कहानियां हैं कि हमें लगता है मंटो बस इन्हीं के लेखक हैं।

मंटो उम्दा किस्म के निबन्ध भी लिखते थे और गजब का अनुवाद करते थे। वह जैसे-जैसे जवान हुए रूसी साहित्य से काफी ज्यादा फ्रभावित होते गए। इसका फ्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में भी दिखाई देता है। जिन दिनों मंटो को रूसी साहित्य का चस्का लग गया था, उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उन्हें रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्रांसीसी साहित्य भी पढ़ने के लिए फ्रेरित किया। इसका नतीजा यह निकला कि मंटो ने कुछ ही महीनों में विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, आंतोन चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि सबको पढ़ डाला। उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक नाटक 'द लास्ट डेज ऑफ ए कंडेम्ड' का उर्दू में अनुवाद भी किया, जो "सरगुजश्त--असीर' शीर्षक से लाहौर से फ्रकाशित हुआ। यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका अनुवाद करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत करीब है।

साहित्य और साम्यवाद के नजदीक आने से उनमें एक पढ़ने की ख्वाहिश पैदा हुई। आखिर फरवरी, 1934 में 22 साल की उम्र में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। यहीं मंटो की मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई और यहां के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को आकार दिया। 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह फ्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था "आतिशपारे'। लेकिन अलीगढ़ में मंटो अधिक दिनों तक "हर नहीं सके। वहां से वह लाहौर चले गये और जनवरी, 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू किया। दिल्ली में यूं तो मंटो सिर्फ 17 महीने रहे, लेकिन यह समय उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था। यहां उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह फ्रकाशित हुए 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाजे' तथा 'तीन औरतें'

मंटो जुलाई, 1942 में बंबई पहुंच गये। यहां वह जनवरी, 1948 तक रहे। बंबई में उन्होंने कुछ पत्रिकाओं का संपादन किया तथा फिल्मो के लिए लिखा। 1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह फ्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियां संग्रहित हैं। हालांकि पाकिस्तान में उन पर, उनकी कई कहानियों के लिए मुकदमें चले। इससे वे परेशान तो हुए लेकिन यह परेशानी उनकी लेखकीय जिजीविषा के कभी आड़े नहीं आयी। बेवजह मुकदमेबाजी के बाद भी लेखन में मंटो तेवर ज्यों के त्यों थे। अपने
19 साल के साहित्यिक जीवन में मंटो ने 230 कहानियां, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख लिखे। 18 जनवरी, 1955 में मंटो अपने तेवरों के साथ, इस दुनिया को अलविदा कह गए।

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