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कहीं हाथी पालने के बराबर तो नहीं साबित होगा दक्षिण एशिया उपग्रह?

👤 admin6 | Updated on:7 May 2017 6:17 PM GMT

कहीं हाथी पालने के बराबर तो नहीं साबित होगा दक्षिण एशिया उपग्रह?

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पल्लव बाग्ला

नई दिल्ली। दक्षिण एशिया के सात देशों के प्रमुखों ने शुक्रवार को भारत की ओर से अपने पड़ोसियों को 450 करोड़ रूपए के संचार उपग्रह के रूप में दिए गए उपहार की सर्वसम्मति से सराहना की तो इन देशों के बीच एक अभूतपूर्व अंतरिक्षीय संबंध की बानगी देखने को मिली।

अंतरिक्ष की दुनिया में इससे पहले का कोई उदाहरण नहीं है, जहां कोई मुफ्त क्षेत्रीय संचार उपग्रह इस तरह भेंट किया गया हो। यह भारत के विशाल हृदय को दिखाता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रिय परियोजना के तौर पर प्रचारित दक्षिण एशिया उपग्रह अब कक्षा में है। जोखिम भरा लेकिन बेहद आसान काम अब पूरा हो चुका है और निश्चित तौर पर इसरो ने इसे अंजाम दिया है।

लेकिन मुश्किल काम अब शुरू हो रहा है, जब सात सदस्य देशों को अपने संसाधनों का इस्तेमाल करके जमीनी स्तर की अवसंरचना तैयार करनी है और उपग्रह से भेजी जाने वाली जानकारी के लिए सॉफ्टवेयर को तैयार रखना है। यह काम कहने को तो आसान है लेकिन इसे करना काफी मुश्किल है।

इस उपग्रह के सफल प्रक्षेपण के बाद वीडियो कॉन्फ्रेंस में मोदी ने कह, ``आज दक्षिण एशिया के लिए एक ऐतिहासिक दिन है। एक ऐसा दिन, जो पहले कभी नहीं आया। दो साल पहले, भारत ने एक वादा किया थ। उसने दक्षिण एशिया में अपने भाइयों और बहनों के विकास और समृद्धि के लिए आधुनिक अंतरिक्षीय प्रौद्योगिकी के विस्तार का वादा किया था।'' उन्होंने कहा, ``दक्षिण एशिया उपग्रह का सफल प्रक्षेपण उस वादे को पूरा करता है। इस प्रक्षेपण के साथ हमने अपनी साझेदारी के सबसे अग्रिम मोर्चे को बनाने के सफर की शुरूआत कर दी है।'' जो बात दरअसल कही नहीं गई, वह यह थी कि विदेश नीति की इस अभूतपूर्व पहल के जरिए भारत इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को सीमित करने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान ने अपने अंतरिक्षीय कार्यक्रम का हवाला देते हुए खुद को इस अंतरिक्ष कार्यक्रम से अलग रखा। जबकि हर कोई जानता है कि उसका यह कार्यक्रम भारत की अत्याधुनिक अंतरिक्ष क्षमताओं की तुलना में बहुत पीछे है और अभी शुरूआती चरण में ही है।इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की क्षमताएं उच्च स्तर की हैं लेकिन देश की कई अंतरिक्षीय संपत्तियें पर ``हाथी पालने वाली'' कहावत लागू होने लगी है।पूर्व में कैग ने भी इसरो को फटकार लगाई थी कि देश के बड़े रिमोट सेंसिंग उपग्रहों द्वारा अंतरिक्ष से ली गई तस्वीरों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया? ये तस्वीरें ताले में बंद पड़ी रहीं और असैन्य योजनाकारों को उपलब्ध ही नहीं कराई गईं।इसमें से काफी कुछ बदला है लेकिन अब भी जो एक मीटर से कम के रेजोल्यूशन वाली उपग्रही तस्वीरें हैं, वे नागरिकों की पहुंच से बाहर हैं। इसी तरह वर्ष 2004 में प्रक्षेपित हुआ भारत का 450 करोड़ रूपए का संचार उपग्रह- एडुसैट भी अपने लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर सका। इसका उद्देश्य संवादात्मक शिक्षण के जरिए उन लोगों तक पहुंचने का है, जहां आम तौर पर पहुंच नहीं बनाई जा पाती।नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, बेंगलूरू ने एडुसैट का आकलन किया और यह निष्कर्ष निकला कि इसका ``पूर्ण इस्तेमाल'' नहीं हुआ क्योंकि यह एक प्रौद्योगिकी आधारित पहल थी, जिसमें उचित प"न-पा"न सामग्री बनाने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।

वर्ष 2014 में इसरो ने बेहद विवादित जीसैट-6 को प्रक्षेपित किया। यह उपग्रह भारत के सैन्य बलों को उपग्रह आधरित अभूतपूर्व मल्टीमीडया क्षमताएं उपलब्ध कराता है। लेकिन खबरों की मानें तो इसके लिए जो हैंडसेट जरूरी हैं, वे अभी तक पूरी तरह विकसित नहीं हुए हैं।

ऐसा लगता है कि इसरो का 16000 कर्मियों का श्रमबल तो अपने संकल्प के अनुरूप काम कर देता है लेकिन मंत्रालय उन लाभों का पूर्ण इस्तेमाल करने में विफल रह जाते हैं।दक्षिण एशिया उपग्रह के परिणाम का आकलन अभी कर लेना जल्दबाजी होगा और इसके लिए हमें 12 साल इंतजार करना होगा। यह इस उपग्रह का न्यूनतम जीवनकाल है।दैनिक जीवन में जब किसी को कोई महंगा उपहार मिलता है, जिसके रखरखाव पर लगातार अच्छा-खासा धन खर्च करने की जरूरत होती है तो वह अकसर धूल ही फांकता है। हम उम्मीद करते हैं कि अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और भारत एक साथ मिलकर और अलग-अलग कई लाख डॉलर लगाएंगे जो कि इस उपग्रह के लाभ हसिल करने के लिए जरूरी होंगे।

भारत की ओर से मिले इस मूल्यवान उपहार का पूर्ण इस्तेमाल न कर पाने की अन्य वजह ये भी हो सकती हैं कि भारत के पड़ोसी देशों के पास या तो पहले से ही संचार उपग्रह हैं या फिर वे इन्हें हासिल करने की दिशा में काम कर रहे हैं।

अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा था, ``यदि हम जमीन पर सहयोग नहीं कर सकते, तो कम से कम आसमान में तो सहयोग कर ही सकते हैं।'' सूत्रों का कहना है कि इस देश के साथ समझौता होना अब भी बाकी है। इसके लिए वे तकनीकी कारणों का हवाला देते हैं। विश्लेषण करने पर पता चलता है कि अफगनिस्तान के पास पहले से ही अफगानसैट नामक उपग्रह है। यह एक संचार उपग्रह है, जिसे उसने एक यूरोपीय देश से पट्टे पर लिया है। अब यह देखना होगा कि अफगान लोग दक्षिण एशिया उपग्रह की सेवाओं का इस्तेमाल करने का अंतिम फैसला कैसे करते हैं।

नेपाल को वर्ष 2015 के भीषण भूकंप के दौरान संचार उपग्रह की जरूरत महसूस हुई। इसलिए दिसंबर 2016 में उसने एक नहीं दो संचार उपग्रह हासिल करने के लिए निविदा निकाली। नेपाल की सरकार भारत के उपहार पर सैटकॉम प्रौद्योगिकी का परीक्षण कर सकती है लेकिन दीर्घकाल में वह इसके समान एक संरचना खड़ी करती है या नहीं, यह देखने के लिए इंतजार करना होगा।

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा, ``प्रकृति और उसके प्रारूपों को जानने की दिशा में यह एक अहम कदम है। आज के शुभ अवसर पर फलदायी संबंधों के माध्यम से हमारे लोगों की बेहतरी हो सकती है।''

लेकिन इसी के साथ दक्षिण एशिया उपग्रह का इंतजार किए बिना ही बांग्लादेश ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपनी क्षमताओं का विस्तार शुरू कर दिया। उसे उम्मीद है कि इस साल के अंत तक वह अपना बंगबंधु-। उपग्रह कक्षा में स्थापित कर सकता है। रिपोर्टों के मुताबिक यह उपग्रह फ्रांस की कंपनी थेल्स एलेनिया स्पेस द्वारा बनाया जा रहा है।

श्रीलंका के पास पहले ही सुप्रीमसैट नामक संचार उपग्रह है। इसका संचालन श्रीलंकाई उपग्रह संचालक सुप्रीमसैट प्राइवेट लिमिटेड द्वारा किया जाता है। यहां दिलचस्प बात यह है कि इसकी साझेदारी चीन के सरकारी उपग्रह निर्माण संस्थान चाइना ग्रेट वॉल इंडस्ट्री कॉरपोरेशन के साथ भी है।

उम्मीद है कि 2230 किलोग्राम का यह दक्षिण एशिया उपग्रह अंतरिक्ष में एक मित्रवत उपग्रह रहेगा और यह `अंतरिक्ष में हाथी पालने' जैसा साबित नहीं होगा।

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