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धार्मिक उत्सवों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है जगन्नाथ रथयात्रा

👤 admin6 | Updated on:11 May 2017 6:19 PM GMT

धार्मिक उत्सवों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है जगन्नाथ रथयात्रा

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भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को ओडिशा के जगन्नाथपुरी और गुजरात के द्वारका पुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं। इस उत्सव के दौरान श्रद्धालुओं का भक्ति भाव देखते ही बनता है क्योंकि जिस रथ पर भगवान सवारी करते हैं उसे घोड़े या अन्य जानवर नहीं बल्कि श्रद्धालुगण ही खींच रहे होते हैं। पुरी में श्री जगदीश भगवान को सपरिवार विशाल रथ पर आरुढ़ कराकर भ्रमण करवाया जाता है फिर वापस लौटने पर यथास्थान स्थापित किया जाता है। यह उत्सव अद्वितीय होता है।

रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अंत में गरुण ध्वज पर या नंदीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ 65 फीट लंबा, 65 फीट चौड़ा और 45 फीट ऊँचा है। इसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे होते हैं। संध्या तक तीनों ही रथ मंदिर पहुँचते हैं। प्रतिवर्ष नए रथों का निर्माण किया जाता है। भगवान मंदिर के सिंहद्वार पर बैठकर जनकपुरी की ओर रथयात्रा करते हैं। जनकपुरी में तीन दिन का विश्राम होता है जहां उनकी भेंट श्री लक्ष्मीजी से होती है। इसके बाद भगवान पुनः श्री जगन्नाथ पुरी लौटकर आसनरुढ़ हो जाते हैं। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला।

दस दिवसीय यह रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक उत्सवों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। जगन्नाथ जी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी' या 'नंदीघोष' रथ कहते हैं। बलराम जी का रथ 'तलध्वज' के नाम से पहचाना जाता है। रथ के ध्वज को 'उनानी' कहते हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है वह 'वासुकी' कहलाता है। सुभद्रा का रथ 'पद्मध्वज' कहलाता है। रथ ध्वज 'नदंबिक' कहलाता है। इसे खींचने वाली रस्सी को 'स्वर्णचूडा' कहते हैं।

रथयात्रा आरंभ होने से पहले पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से सोने के हत्थे वाली झाडू से ठाकुर जी के प्रस्थान मार्ग को साफ करते हैं। इसके बाद मंत्रोच्चार एवं जयघोष के साथ रथयात्रा शुरू होती है। सर्वप्रथम बलभद्र का रथ तालध्वज प्रस्थान करता है। थोड़ी देर बाद सुभद्रा की यात्रा शुरू होती है। अंत में लोग जगन्नाथ जी के रथ को बड़े ही श्रद्धापूर्वक खींचते हैं। लोग मानते हैं कि रथयात्रा में सहयोग से मोक्ष मिलता है, अत: सभी श्रद्धालु कुछ पल के लिए रथ खींचने को आतुर रहते हैं। जगन्नाथ जी की यह रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है। 'गुंडीचा मंदिर' वहीं पर स्थित है जहां विश्वकर्मा जी ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। यह भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। यहां भगवान एक सप्ताह प्रवास करते हैं और इस दौरान यहीं पर उनकी पूजा की जाती है। आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। शाम तक रथ जगन्नाथ मंदिर पहुंच जाते हैं लेकिन प्रतिमाओं को अगले दिन ही मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में फिर से स्थापित किया जाता है।

श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्रीकृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है- द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृंदावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।

माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्रीकृष्ण और बलरम अचानक अंत:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अंत:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनों को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था। अचानक नारदजी के आगमन से वे तीनों पूर्ववत् हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।

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