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भारतीय मूर्तिकला में वात्सल्य की देवी है हारीति

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:20 May 2018 8:43 PM IST

भारतीय मूर्तिकला में   वात्सल्य की देवी है हारीति

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सुमन कुमार सिंह

हमारे यहां बौद्ध धर्म में मातृदेवी के रूप में जो विभिन्न स्त्राr फ्रतिमाएं मिलती हैं, उन्हें देवी के रूप में मान्यता दी गई है। विशेषकर वज्रयान मत में जिन विभिन्न देवियों की चर्चा है वे हैं- तारा, उग्रतारा, वेश्यतारा, सीतातारा, कुरकुला तारा, मारीचि, अपराजिता व हारीति। सर्वफ्रथम गंधार शैली में हारीति की फ्रतिमा फ्राप्त हुई हैं, विदित हो कि जब हम भारतीय उपमहाद्वीप की मूर्तिकला की बात करते हैं तो सबसे फ्रारंभिक शैली के तौरपर गंधार शैली को ही माना जाता है। इसके बाद की शैलियों में जो शैलियां आती हैं उनमें मथुरा और अमरावती शैली को महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे गंधार शैली के बारे में समझा जाता है कि इस पर यूनानी शैली का स्पष्ट फ्रभाव है।
हारीति की फ्रतिमाएं गंधार के अलावा कौशाम्बी, सांची, मथुरा व अमरावती से भी फ्राप्त हुइं& हैं। ये फ्रतिमाएं एकाकी और युग्म दोनों रूपों में मिलती हैं। एकाकी फ्रतिमा में स्त्राr अपनी गोद में या हाथ में बच्चे को लिए हुए है। वहीं युग्म फ्रतिमा में वह कुबेर के साथ हैं। वैसे कुछ विद्वान इसे कुबेर नहीं मानते हैं। उनके अनुसार उसके पति का नाम पंचिका या पांडुका है। इस रूप में यह युग्म धन, ऐश्वर्य व समृद्धि का फ्रतीक या वाहक है। वर्तमान इंडोनेशिया के मेंदुत स्थित बौद्ध मंदिर के दक्षिणी पैनल पर भी हारीति की फ्रतिमा है। यह मंदिर नौवीं सदी में यहां शासन करने वाले शैलेन्द्र राजवंश के फ्रारंभिक दौर की मानी जाती है। वहीं नेपाल के का"मांडू स्थित स्वयंभू मंदिर में भी यह देवी नेवार समुदाय की दादीअम्मा के तौरपर पूजित हैं। समझा जाता है कि बौद्ध धर्म की वज्रयान मतावलंबी इन्हें मातृदेवी खासकर फ्रजनन की देवी व छोटे बच्चों के संरक्षक के रूप में मान्यता देते हैं।
विभिन्न बौद्ध ग्रंथों के अनुसार हारीति नामक राक्षसी राजगृह में निवास करती थी। जिसकी पांच सौ संतानें थीं, अपने संतानों के लिए भोजन जुटाने के उद्देश्य से वह राजगृह के बच्चों को मार देती थी। उसके हाथों जान गंवाने वाले बच्चों के माता पिता अपनी संतानों के इस तरह से मारे जाने को लेकर व्यथित थे। जब कोई उपाय समझ में नहीं आया तो वे वहां निवास कर रहे भगवान बुद्ध के पास आए और उन्हें अपना दुःख सुनाकर, इससे मुक्ति दिलाने का अनुरोध किया। बुद्ध ने हारीति के बच्चों में से सबसे छोटे बच्चे को अपने पास छुपा लिया। अपने शिशु को ढूंढ़ते हुए हारीति रोते बिलखते हुए भगवान बुद्ध के पास पहुंचकर अपने व्यथा सुनाने लगी। भगवान ने उससे पूछा कि क्या तुम सचमुच में अपने बच्चे को खोकर दुःखी हो, जब तुम अपने सैकड़ों बच्चों में से महज एक के नहीं मिलने पर इतना दुःखी हो, तो उन माता-पिताओं के ऊपर क्या बीतती होगी जिनके बच्चों को तुमने मारा है। उसने कहा कि भगवन निःसंदेह उनका दुःख मेरे दुःख से बहुत बड़ा है। तब बुद्ध उसके बच्चे को सामने लाये और उसे सौंप दिया, साथ ही उसकी संतानों के लिए बड़ी मात्रा में अन्नादि उपलब्ध कराए। इसके बदले में हारीति ने बच्चों को मारने के बजाय उनसे फ्रेम करने की फ्रतिज्ञा की। तभी से हारीति में उपजे वात्सल्य फ्रेम के कारण ही इसे बच्चों के संरक्षक देवी के तौरपर माना जाने लगा व उसकी पूजा की जाने लगी।
चीनी यात्री इत्सिंग ने अपने यात्रा वृतांत में राजगृह के भोजनालय व म" में हारीति की फ्रतिमा के होने का वर्णन किया है। कुछ मान्यताओं के अनुसार हिन्दू ग्रंथों में वर्णित षष्"ाr देवी हारीति का परिवर्तित रूप है। लेकिन कुछ विद्वान इस षष्"ाr को हारीति का नया रूप नहीं मानते हैं। वह षष्"ाr को एक स्वतंत्र देवी मानते हैं व षष्"ाr पूजा में सूर्य की पूजा को फ्रमुखता देते हैं, क्योंकि सूर्य को जीवनदाता के साथ साथ रोगनिहन्ता भी मानते हैं। किन्तु यह निर्विवाद है कि बौद्ध धर्म में हारीति को एक फ्रमुख देवी के रूप में मान्यता दी जाती है। जापानी परंपरा में इसे किशिमोजिन के नाम से चिन्हित किया गया है, जो अवलोकितेश्वर से संबद्ध मानी जाती है। यहां यह दया करूणा और फ्रजनन की देवी के रूप में स्थापित है। मेंदुत के पैनल पर अंकित फ्रतिमा में आसन पर बै"ाr हारीति के गोद में एक शिशु है, एक दूसरा शिशु उसके कान्धे पर चढ रहा है। उसके चारों तरफ बच्चों का समूह है जिनमें से कुछ खेल रहे हैं तो कुछ बच्चे फलदार पेड़ पर चढ रहे हैं। उसके आसन के नीचे आम के फलों से भरा हुआ कटोरानुमा पात्र है। इसके अलावा इस पैनल के ऊपर के भाग में उड़ते हुए तोतों का भी अंकन है।
कुल मिलाकर यह माना जाता है कि यह देवी किसी न किसी रूप में भारतीय उपमहाद्वीप समेत चीन और जापान में भी बौद्ध मान्यताओं में पूजित रही है। किन्तु कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह परंपरा बुद्ध से भी पहले से चली आ रही है। वे इसे एक स्थानीय लोकदेवता या ग्राम्यदेव के रूप में देखते हैं। डी. डी. कौसाम्बी जैसे विद्वानों का मानना है कि बौद्ध धर्म के उदय के बाद, कई पहले से फ्रचलित पूजित स्थानीय देवी देवताओं को भी बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं के तौरपर मान्यता दे दी गई। खासकर ऐसे देवी-देवताओं को कुछ परिवर्तित रूप में स्थान दे दिया गया जो हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णित नहीं थे और जिनकी पूजा व आराधना का भाव लोक मानस में रचा बसा था। संभवतः यह फ्रयास अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने व दूसरों की मान्यताओं को सम्मान देने के परस्पर भावना के तहत किया गया हो। बहरहाल जो भी हो भारतीय मूर्तिकला परंपरा को इन फ्रतिमाओं ने समृद्ध किया है इतना तो मानना ही पड़ेगा।

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