Home » रविवारीय » मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर विशेष विधानसभा चुनावों में क्या मोदी का जादू सिर चढ़कर बोला था?

मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर विशेष विधानसभा चुनावों में क्या मोदी का जादू सिर चढ़कर बोला था?

👤 admin 4 | Updated on:22 May 2017 5:36 PM GMT

मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर विशेष  विधानसभा चुनावों में क्या मोदी का जादू सिर चढ़कर बोला था?

Share Post

शाहिद ए चौधरी

2014 के आम चुनाव में बीजेपी ने शानदार जीत हासिल की और तीन दशक बाद लोकसभा में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत फ्राप्त हुआ। इसका श्रेय नरेंद्र मोदी को दिया गया, जो इस लिहाज से सही था कि अपनी पार्टी के फ्रधानमंत्री फ्रत्याशी के रूप में वह अखिल भारतीय नेता के रूप में उभरकर आए। इस विजय को बीजेपी लहर की बजाय मोदी लहर व मोदी सरकार के रूप में फ्रचारित किया गया। स्पष्ट था कि बीजेपी भी कांग्रेस की तरह व्यक्तित्व या हीरो वर्शिप की राजनीति करना चाह रही थी। इसलिए उसने बाद के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी या स्थानीय नेताओं के नाम पर कम और मोदी के नाम पर वोट अधिक मांगे। हमेशा इलेक्शन मोड में रहने वाले फ्रधानमंत्री मोदी को भी यही बात ज्यादा सूट करती है; याद कीजिये कि जब 2014 के आम चुनाव में बीजेपी के एक वरिष्" नेता ने 'अबकी बार बीजेपी सरकार' ट्वीट कर दिया था तो तुरंत दबाव डाला गया और ट्वीट में संशोधन करते हुए उसे 'अबकी बार मोदी सरकार' कर दिया गया।

अब मोदी सरकार को तीन वर्ष पूरे हो गये हैं। इस बीच 16 विधानसभाओं के लिए चुनाव हुए हैं, जिनमें बीजेपी ने मोदी के नाम पर ही वोट मांगे हैं। इसलिए यह समीक्षा दिलचस्प रहेगी कि मोदी का जादू कितना सिर चढ़कर बोला? इन 16 राज्यों में से 9 में बीजेपी अपने दम पर या दूसरों के सहयोग से सरकार बनाने में कामयाब रही और इनमें से 3 में उसने अपने राजनीतिक इतिहास में पहली बार सरकार बनाई। लेकिन यह तस्वीर की पूरी कहानी नहीं है।

झारखंड, हरियाणा, असम, उत्तराखंड व उत्तर फ्रदेश में बीजेपी ने स्पष्ट बहुमत हासिल करते हुए अपने दम पर सरकार बनाई। महाराष्ट्र व जम्मू कश्मीर में उसने ाढमशः शिवसेना व पीडीपी के सहयोग से सत्ता हासिल की। गोवा व मिजोरम में वह कांग्रेस के मुकाबले में दूसरे नंबर की पार्टी रही थी, लेकिन जोड़-तोड़ व केंद्र (और राज्यपालों) की मदद से इन दोनों राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही। असम, मिजोरम व जम्मू कश्मीर में वह पहली बार सरकार में आई। दूसरी ओर केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, बिहार, पंजाब व पुजgचेरी में उसे अलग-अलग पार्टियों व ग"बंधनों से करारी हार का सामना करना पड़ा। हां, केरल में बीजेपी अपने इतिहास में पहली बार खाता खोलने में कामयाब रही।

कुल मिलाकर देखें तो बीजेपी के लिए इन तीन वर्षों में विधानसभा चुनाव परिणाम मिले जुले रहे हैं। फ्रत्येक राज्य में उसकी जीत या हार के कारण अलग-अलग रहे हैं, चुनावी मुद्दे अलग रहे हैं और मतदाताओं की फ्रतिािढयाएं अलग रही है। इसलिए न जीत का सेहरा मोदी के सिर बांधा जा सकता है और न ही हार का "rकरा उनके नाम पर फोड़ा जा सकता है। साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इन चुनावों में मोदी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। बीजेपी अच्छी संग"ित पार्टी है और चुनाव में उसे आरएसएस के अनुशासित कार्यकर्ताओं का भरपूर सहयोग मिलता है। उसकी फ्रचार मशीनरी जबरदस्त है, जो भावनात्मक, विवादित, जातीय, साफ्रदायिक आदि मुद्दों को उ"ाने व उनके आधार पर मतदाताओं का धुर्वीकरण करने में अक्सर सफल हो जाती है। फिर अधिकतर राज्यों में उसके विरोधी दल आपस में ही लड़ रहे होते हैं, जैसे उत्तर फ्रदेश में बसपा व सपा। इस सबका बीजेपी को चुनाव में भरपूर लाभ मिलता है।

लेकिन जहां विपक्ष अपने मतभेद दूर करके एकजुट हो जाता है, जैसा कि बिहार में तो बीजेपी के लिए यह लाभ की स्थितियां भी काम नहीं आती हैं या फिर विपक्ष के पास कोई करिश्माई नेता हो जैसे अन्नाद्रमुक के पास जयललिता थीं जिन्होंने तमिलनाडु की परम्परा को तोड़ते हुए अपनी पार्टी को लगातार दूसरी बार जीत दिलाई और तृणमूल कांग्रेस के पास ममता बनर्जी हैं जो तमाम विवादों व घोटालों के बावजूद बंगाल में जनता का विश्वास पुनः जीतने में सफल रहीं।

कुछ राज्य हैं जहां बीजेपी अपना विस्तार नहीं कर पाई है जैसे केरल। केरल ने जरूर अपनी परम्परा को बरकरार रखा और सत्ता में परिवर्तन करते हुए वामपंथ को पांच साल के अन्तराल के बाद एक बार फिर सरकार बनाने का अवसर दिया। हालांकि 2011 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे ने सरकार बनायी थी लेकिन वह चंद सीटों के अंतर से ही बहुमत में था। इस बार वामपंथ ने काफी बड़ी बढ़त बनायी है, केवल इसलिए नहीं कि सत्तारूढ़ दल के फ्रति स्वाभाविक नाराजगी मतदाताओं में थी बल्कि बीजेपी ने 2014 के अपने आम चुनाव के फ्रदर्शन को दोहराते हुए, जब उसने 11 फ्रतिशत मत हासिल किये थे, कांग्रेस की वोटों में सेंध लगायी और यही कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट होता है कि बीजेपी लगातार कांग्रेस की कीमत पर अपना विस्तार करते हुए सही मायनो में राष्ट्रीय पार्टी बनती जा रही है।

उक्त बात असम विधानसभा के चुनावी नतीजों से अधिक स्पष्टतौर पर निखर कर सामने आती है, जहां बीजेपी ने न केवल तरुण गोगोई की 15 साल पुरानी कांग्रेस को पराजित किया बल्कि उत्तरपूर्व के किसी भी राज्य में पहली बार सरकार बनाने का अधिकार फ्राप्त किया। हालांकि बीजेपी ने कांग्रेस की चाटुकार परम्परा (जीत का सेहरा नेहरु-गांधी परिवार को जाये और हार का "rकरा स्थानीय नेताओं पर फोड़ा जाये) को निभाते हुए असम की सफलता का श्रेय फ्रधानमत्री नरेंद्र मोदी के 'करिश्माई' नेतृत्व को दिया, लेकिन वास्तविकता यह है कि बीजेपी ने दिल्ली व बिहार की करारी पराजयों से सबक हासिल करते हुए अपने चुनाव अभियान का कुल फोकस मोदी की शख्सियत पर नहीं रखा। असम में उसने एक मजबूत स्थानीय चेहरे (सरबानंद सोनोवाल) को मुख्यमंत्री के रूप में फ्रोजेक्ट किया, कांग्रेस के मजबूत नेता हिमानता बिसवा शर्मा को अपनी तरफ तोड़ा, स्थानीय पार्टियों से चुनावी ग"बंधन किया और गोगोई सरकार के खिलाफ जो जनता में नाराजगी थी उसे अच्छी तरह से भुनाया।

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि कांग्रेस की कीमत पर बीजेपी का अखिल भारतीय विस्तार हो रहा है, जिसे बीजेपी भी अच्छी तरह समझती है और इसलिए उसका नारा है 'कांग्रेस मुक्त भारत'। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। अगर आप 2017 के पांचों राज्यों के चुनाव परिणामों को गौर से देखें तो जनता ने सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ मतदान किया है यानी वह परिवर्तन के पक्ष में थी। इसलिए उत्तर फ्रदेश में सपा हारी, उत्तराखंड में कांग्रेस और पंजाब में अकाली दल-बीजेपी। जिन दो राज्यों- मणिपुर व गोवा- में त्रिशंकु विधानसभाएं आयीं उनमें भी गुस्सा सत्तारूढ़ दल के ही विरोध में था, इसलिए मणिपुर में कांग्रेस 60 सीटों की विधानसभा में 41 सदस्यों से 28 पर रह गई और गोवा में बीजेपी को 40 सीटों में से केवल 13 पर कामयाबी मिली थी।

Share it
Top