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कितनी कारगर रही मोदी की 'पहले पड़ोस' की विदेश नीति ?

👤 admin 4 | Updated on:22 May 2017 5:58 PM GMT

कितनी कारगर रही मोदी की  पहले पड़ोस की विदेश नीति ?

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लोकमित्र

नई ऊर्जा से लबरेज, लीक से हटकर सोचना और पहल करना और रिस्क लेने से तनिक भी न घबराना, फ्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की खूबियों की झलक उनकी विदेश नीति पर भी दिखायी देती है। विदेश नीति के संबंध में अपने तीन साल के शासनकाल में उन्होंने अपने फ्रयासों में जो सजीवता व साहस का परिचय दिया है, उसे देखते हुए विदेश सम्बन्धों के अधिक महत्वपूर्ण व सकारात्मक परिणाम आने चाहिए थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। इसमें दोष केवल इस बात का ही नहीं है कि उनकी कुछ पहलों में योजनाएं कमजोर रहीं व उन्हें सही ढंग से लागू नहीं किया गया बल्कि तथ्य यह भी है कि विदेश नीति में बाहरी परिवर्तनशील चीजें भी होती हैं जिनपर आपका नियत्रण नहीं होता।

अपने कार्यकाल के पहले तीन वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने 6 महाद्वीपों की 44 यात्राएं (अफ्रीका 6, एशिया 26, ऑस्ट्रेलिया 2, यूरोप 6, उत्तरी अमेरिका 3 व दक्षिण अमेरिका 1) कर चुके हैं, जबकि अपने 10 वर्ष के कार्यकाल के दौरान पूर्व फ्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 6 महाद्वीपों की 49 यात्राएं (अफ्रीका 7, एशिया 25, ऑस्ट्रेलिया 7, यूरोप 4, उत्तरी अमेरिका 4 व दक्षिण अमेरिका 2) की थीं। फ्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) की वेबसाइट के अनुसार मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले 119 दिनों में ही 45 देशों की यात्रा की थी, जिसपर चार्टर्ड फ्लाइट्स के लिए सरकार ने 275 करोड़ रूपये खर्च किये (उन पांच यात्राओं के खर्च को छोड़कर जिनका डाटा उपलब्ध नहीं है) 2015 में अफ्रैल 9 से 17 तक नरेंद्र मोदी ने फ्रांस, जर्मनी व कनाडा का आ" दिन का सफर किया था उसका उड़ान खर्च 31.2 करोड़ रुपया था। मोदी के इस व्यस्त विदेशी कार्पाम से इतना तो स्पष्ट होता है कि विदेशी मामलों में सरकार अपनी तरफ से कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती है, यह अलग बात है कि आशा के अनुरूप परिणाम सामने नहीं आए हैं।

मई 2014 में केंद्र की सत्ता सम्भालते ही मोदी ने अपनी विदेश नीति की दिशा का संकेत दे दिया था, जब उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पड़ोसी देशों के फ्रमुखों को आमंत्रित किया कि उनके लिए 'पहले पड़ोसी' उनकी पहली फ्राथमिकता रहेगी। इसके बाद अपने फ्रचारित 'रायसीना डायलॉग्स' के जरिए मोदी सरकार ने उन विषयों को सामने रखा जो वह अपनी विदेश नीति में अपनाने के इच्छुक है। 2016 के पहले संस्करण में 'कनेक्टिविटी' पर बल था कि सभी पड़ोसी देशों को पर्यटन व व्यापार विकास के लिए सड़क मार्गों से जोड़ा जाये, जिसमें बांग्लादेश व नेपाल तो साथ आ गए, लेकिन पाकिस्तान व भूटान अलग-अलग कारण देते हुए अलग हो गए। इस डायलॉग का उद्देश्य पड़ोसी देशों से सम्बंध मजबूत करना रहा। जनवरी 2017 में डायलॉग 'बहुध्रुवीयता व बहुदेशीयवाद' के मूल उद्देश्य के साये में रहा, यह संकेत देते हुए कि भारत महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्ति है और वह निरंतर मजबूत हो रहा है।

यहां यह याद रखना चाहिए कि मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले ही विदेश नीति में कुछ ट्रेंड क"िन हो गए थे। चीन से सीमा विवाद समाधान की जो विशेष फ्रतिनिधि फ्रािढया थी वह बंद गली में पहुंच चुकी थी। यही कुछ पाकिस्तान के साथ कम्पोजिट डायलॉग के संदर्भ में था। वास्तव में अगर इस तथ्य को भी नजरंदाज कर दिया जाये कि पाकिस्तान नवम्बर 2008 के मुंबई आतंकी हमले के दोषियों को सजा नहीं दे रहा है, तो भी मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता से हल करने का आधार अर्थहीन हो चुका था।

इस पृष्"भूमि में मोदी ने अपने 'पहले पड़ोसी' एजेंडा पर बल दिया। जून 2014 में उनकी पहली द्विपक्षीय यात्रा सबसे 'अच्छे दोस्त' भूटान की थी और फिर अगस्त में वह नेपाल गए। वह नवम्बर में फिर का"मांडू 18 वें सार्क सम्मलेन में हिस्सा लेने के लिए गए, जहां उन्होंने पाकिस्तान के फ्रधानमंत्री नवाज शरीफ की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। 2015 में भी 'पहले पड़ोसी' के पैटर्न को दोहराया गया, लेकिन इस बार फोकस हिन्द महासागर था कि सेयश्ल्ल्स, मॉरिशस, श्री लंका व बांग्लादेश की यात्रा के अलावा अफगानिस्तान का दौरा भी किया गया। इसके बाद जुलाई 2015 में पांच मध्य एशिया के देशों की यात्रा की गई। तीसरी वरीयता 2016 में सऊदी अरब, ईरान व कतर की यात्राओं में देखने को मिली। अगस्त 2016 में वह संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा कर चुके थे और 2017 की गणतंत्र दिवस परेड में अमीरात के राजकुमार मुहम्मद बिन जायेद अल नहयान मुख्य अतिथि बने।

मोदी ने इन यात्राओं के बीच में जापान व विभिन्न यूरोपीय देशों की यात्रा भी की, जिसका मकसद इन देशों में निवेश व उन्हें मदद देने के लिए आकर्षित करने के लिए था। अमेरिका की यात्राएं विशेष श्रेणी में थीं, क्योंकि वही एक ऐसी महाशक्ति है जो चीन को कंट्रोल करने में भारत की मदद कर सकती है और जिसकी दोस्ती अन्य देशों व संस्थाओं के द्वार भारत के लिए खोल सकती है।

लेकिन अनेक कारणों से 'पहले पड़ोसी' के परिणाम आशा के अनुरूप नहीं निकले। ..और हम केवल पाकिस्तान की बात नहीं कर रहे हैं, जिसने दोस्ती के हर फ्रयास (मोदी की इस्लामाबाद यात्रा, आदि) का जवाब उरी, प"ानकोट आदि आतंकी हमलों से दिया और भारत को मजबूरन पाकिस्तान को अलग-थलग करने व आतंकी देश घोषित कराने की नीति अपनानी पड़ी। यही कारण था कि इस्लामाबाद में होने वाले 19 वें सार्क सम्मेलन को नई दिल्ली ने बायकाट किया। नेपाल से भी उसके नए संविधान (जो मधेसी लोगों के हितों के विरोध में है) को लेकर सम्बंध खराब हो गए। स्थिति को संभालने के लिए नई दिल्ली ने विदेश सचिव जय शंकर को भेजा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। रोड ब्लाक के कारण हालात कुछ काबू में आए और फिर बाद में नई दिल्ली की मदद से के पी शर्मा ओली की जगह पुष्पा कमल दहल (फ्रचंड) को नेपाल का फ्रधानमंत्री बना दिया गया, लेकिन नुकसान बहुत गहरा है, और ओली अब चीन के सहयोग से नेपाल में राष्ट्रवाद की भावनाएं भड़का रहे हैं।

अपनी आाढामकता के कारण नई दिल्ली ने श्री लंका में ऐसे राजनीतिक ग"बंधन को बनने में मदद की जिसने वहां के राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे को पराजित किया, जो कि चीन को अधिक महत्व दे रहे थे। नई दिल्ली की चिंता इस बात से थी कि 2014 2015 में कोलोंबो बंदरगाह पर चीनी सबमरीन "हर रहीं थीं। हालांकि अपनी हाल की श्री लंका यात्रा के दौरान मोदी ने राजपक्षे की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और दोनों देशों की साझा विरासत बौद्ध धर्म के जरिए पर्यटन विकास व संबंध बेहतर करने का फ्रयास किया, लेकिन चीन के बढ़ते फ्रभाव के कारण न केवल श्री लंका में बल्कि अन्य पड़ोसी देशों में भी, रोक पाना क"िन हो रहा है। चीन के पास जो संसाधन, इंफ्रास्ट्रक्चर व धन की ताकत है, उसका मुकाबला करना क"िन है, जैसा कि उसके 'वन बेल्ट वन रोड' पहल से स्पष्ट है, जिसका भारत ने बायकाट किया। भारत सॉफ्ट पॉवर से ही मुकाबले में बना रह सकता है, इसलिए मोदी ने बौद्ध पर्यटकों के लिए कोलंबो से वाराणसी की सीधी उड़ान पर बल दिया।

अपनी विदेश नीति में भारत का एक ही मुख्य लक्ष्य हो सकता है- आर्थिक विकास को फ्रोत्साहित किया जाये और अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखा जाये। दक्षिण एशिया की अर्थ व्यवस्था को कनेक्टिविटी के जरिए मजबूत करना तर्कसंगत था लेकिन पाकिस्तान से खराब संबंधों के कारण इसमें आशानुरूप सफलता नहीं मिल पा रही है। सीमा सुरक्षा में चीन-पाकिस्तान के ग"बंधन को नियंत्रित (अगर सम्भव हो तो तोड़ना) करना आवश्यक फ्रतीत होता है, लेकिन पिछले तीन वर्षों के दौरान मोदी सरकार इस काम में भी डगमगाती हुई नजर आई।

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