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अल्लाह का हुक्म है रमजान का रोजा

👤 admin 4 | Updated on:22 May 2017 6:02 PM GMT

अल्लाह का हुक्म है  रमजान का रोजा

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समीर चौधरी

हिजरी कैलंडर के नवें महीने का नाम रमजान है। इस माह में फ्रत्येक बालिग मुस्लिम, चाहे पुरुष हो या स्त्राr, के लिए सोम यानी रोजा रखना अनिवार्य है, यही अल्लाह का हुक्म है। रोजा यह है कि व्यक्ति सूरज की पहली किरण (यानी पौ फटने से पहले) से लेकर सूरज की अंतिम किरण (यानी जब सफेद व काले धागे में अंतर न किया जा सके) तक खाने, पीने, धूम्रपान, यौन सम्बंध आदि से अपने को दूर रखे। दूसरे शब्दों में वह पौ फटने से पहले और अंधेरा होने के बाद खा पी सकता है, लेकिन इनके बीच में एक बूंद पानी तक नहीं पी सकता। बावजूद इसके सोम को लेकर स्वयं मुस्लिमों में बहुत सी गलतफहमियां हैं, जिनको दूर करना आवश्यक मालूम होता है। इसलिए मदरसा नूर उल इस्लाम, मेर", में अरबी भाषा व दीनयात के फ्रोफेसर कारी रईस अहमद के समक्ष वह फ्रश्न रखे गए जिनके सही जवाब हर कोई जानना चाहता है।

जो बालिग शख्स रमजान के माह में घर पर है, उस पर रोजा रखना फर्ज है। अगर कोई व्यक्ति बीमार है या सफर में है तो वह छूटे हुए रोजों की गिनती स्वस्थ होने या घर लौटने पर पूरी करे। लेकिन अगर कोई व्यक्ति न बीमार है और न मुसाफिर है, मगर ऐसी समस्या से ग्रस्त है जो कभी "rक नहीं हो सकती, जैसे बुढ़ापे के कारण कमजोरी, मधुमेह आदि तो वह न रमजान के माह में ही रोजे रख सकता है और न बाद में ही गिनती पूरी कर सकता है, तो वह क्या करे? कारी रईस अहमद के अनुसार, "इस्लाम किसी को मुश्किल में नहीं डालना चाहता है। वह हर समस्या का समाधान करता है। जिन लोगों को कभी न "rक होने वाली अपनी सेहत के कारण रोजा रखने में क"िनाई होती है, उनके लिए कुरआन का हुक्म है कि वह एक रोजे के बदले में एक मिस्कीन यानी गरीब व्यक्ति को भर पेट खाना खिला दें। इतना ही करना पर्याप्त होगा।'

जिन लड़कियों या महिलाओं को माह रमजान में रजोधर्म या मासिक पा हो जाता है वह उस अवधि में रोजा रखें या बाद में गिनती पूरी करें? इस संदर्भ में कारी रईस कहते हैं, "रजोधर्म के सम्बंध में कुरआन में केवल एक आयत (2/222) है, जिसमें पति के लिए आदेश है कि वह इस अवधि में अपनी पत्नी से यौन सम्बंध स्थापित न करे, उससे दूर रहे, बस। कुरआन में कहीं नहीं कहा गया कि मासिक धर्म के दौरान स्त्राr रोजे रखे या न रखे। लेकिन फिकह (इस्लामी कानून) में है कि रजोधर्म की स्थिति में महिला न रोजे रखे और न ही सलात (नमाज) अदा करे, पाक होने पर छूटे हुए रोजे रख ले व छूटी हुई सलात की भी कजा अदा करे।'

अगर कोई व्यक्ति रोजे से है और अचानक उसकी इतनी तबियत खराब हो जाये कि शाम तक रोजा पूरा करना सम्भव ही न हो तो वह क्या करे? कारी रईस अहमद के अनुसार वह ऐसी स्थिति में अपनी जान बचाने के लिए रोजा तोड़ सकता है, लेकिन उस पर कजा लाजमी हो जायेगी। हां, अगर वह बिना किसी उचित कारण के रोजा तोड़ता है तो उस पर दोनों कजा व कफ्फारा अनिवार्य हो जायेंगे।

कजा और कफ्फारा क्या होते हैं? कारी रईस अहमद बताते हैं, "एक रोजे के बदले एक रोजा रखना तो कजा कहलाता है और रोजे के बदले रोजा रखने के अलावा जब जुर्माना भी अदा करना अनिवार्य हो जाता है तो उसे कफ्फारा कहते हैं। कफ्फारा की शक्ल यह है कि व्यक्ति एक गुलाम आजाद करे या कराये। इसका मकसद गुलामी को खत्म करना था, जो कि अब हो चुकी है, इसलिए अब यह कफ्फारा तो दिया नहीं जा सकता, लेकिन अन्य विकल्प हैं, जैसे कफ्फारे में दो माह के लगातार रोजे रखने और अगर यह सम्भव न हो तो 60 गरीबों को भोजन कराना या अगर जिन्स देना हो तो फ्रति गरीब व्यक्ति एक मुद जौ या गेहूं या खजूर या चावल देना होगा।'

आजकल नेट पर दो बातों को लेकर जबरदस्त बहस है। एक के तहत यह कहा जा रहा है कि रमजान किसी महीने का नाम नहीं है बल्कि शदीद गर्मी को कहते हैं, इसलिए किसी विशेष माह में अपने शरीर को कष्ट देते हुए रोजे रखने का कोई आदेश नहीं है। दूसरा यह कि कुरआन में किसी भूल या पाप के फ्रायश्चित के तौरपर तो रोजा रखने का आदेश है, लेकिन इबादत (पूजा) के तौरपर रोजे का हुक्म नहीं है।

कारी रईस अहमद इन दोनों ही बातों को निराधार व बेबुनियाद बताते हैं। वह कहते हैं, "यह सही है कि रम्ज जिससे शब्द रमजान बना है उसका अर्थ शदीद गर्मी ही है और इसलिए जब अरब में सोलर (सूर्य के हिसाब से) कैलंडर बनाया गया तो महीनों के नाम मौसम के हिसाब से रख दिए गए और शदीद गर्मी में पड़ने वाले महीने का नाम रमजान रख दिया गया। लेकिन जब सोलर कैलंडर की जगह लूनर (चांद के हिसाब से) कैलंडर अपनाया गया तो महीनों के नाम नहीं बदले गए, इसलिए अब कोई भी महीना किसी भी मौसम में पड़ जाता है। चूंकि रोजे का मकसद अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने की ट्रेनिंग है, अतः यही बेहतर है कि रमजान व्यक्ति के जीवनकाल में हर मौसम में आ जाये और वह गर्मी, सर्दी आदि सभी में आत्म नियंत्रण सीख सके। फिर कुरआन (2/185) में शहर उर्रमजान शब्द आए हैं जिनका अर्थ रमजान का महीना होता है। शहर पहली तारीख के उस चांद को कहते हैं जिससे माह की शुरुआत मानी जाती है, इसलिए शहर का अर्थ महीना भी है। जो लोग यह कह रहे हैं कि रमजान किसी माह का नाम नहीं वह गलती पर हैं।'

अपनी बात को जारी रखते हुए कारी रईस अहमद बताते हैं, "कुरआन में सोम या रोजे का उल्लेख फ्रायश्चित के तौरपर भी किया गया है, जैसे हज में कमी रह जाने पर रोजे रखना (2/196), कसम तोड़ने के फ्रायश्चित में रोजा रखना (5/89), जिहार (पत्नी के पास न जाने की कसम) के फ्रायश्चित में रोजा रखना (58/4) आदि, लेकिन माह रमजान के रोजे न सजा हैं और न ही फ्रायश्चित। रोजे के लिए कुरआन में सोम का शब्द आया है, जिसके बुनियादी अर्थ अपने को इस फ्रकार नियंत्रित रखना है कि धार्मिक नियमों का उल्लंघन न हो। जो सोम से होता है उसे साइम कहते हैं यानी अपने आपको गलत रास्तों से रोकने वाला, अपने आप पर नियंत्रण रखने वाला। रमजान के रोजे अपनी रूह के एतबार से वार्षिक ट्रेनिंग हैं ताकि एक मुस्लिम कुरआन के आदेश अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर सके और एक ऐसा समाज विकसित करने में सहयोग करे जिसमें हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के विकास करने का अवसर मिले और पूरे संसार में शांति स्थापित हो। इस्लाम का अर्थ ही शांति है- अपने आप से शांति, अपने पड़ोसी से शांति, अपने समाज से शांति, अपने देश से शांति, इस ब्रह्मांड से शांति।'

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