थैलस्सेमिया पर राष्ट्रीय नीति की जरूरत क्या सरकार के लिए प्राथमिकता बन सकेगी
डॉ.माजिद अलीम
गत 8 मई को विश्व थैलस्सेमिया दिवस के अवसर पर विभिन्न विशेषज्ञों की यह बात सुनकर आश्चर्य भी हुआ और चिंता भी कि भारत विश्व की थैलस्सेमिया राजधानी है और इसके बावजूद इस रोकने व नियंत्रित करने का कोई कार्पाम राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध नहीं है और न ही इस बारे में केंद्र सरकार की कोई मंशा दिखाई दे रही है, जबकि पाकिस्तान, दुबई, सऊदी अरब जैसे देश थैलस्सेमिया को नियंत्रित करने के लिए बड़े पैमाने पर योजना बना चुके हैं और उन्हें सख्ती से लागू भी कर रहे हैं।
थैलस्सेमिया एक जेनेटिक ब्लड डिसऑर्डर है। इसका सबसे पहला लक्षण यह है कि शरीर में असामान्य रूप से हीमोग्लोबिन का उत्पादन होने लगता है। इस असमान्यता के कारण शरीर में विभिन्न अंगों को ऑक्सीजन की सप्लाई में बाधा उत्पन्न होने के कारण इसमें असंतुलन आ जाता है, जिससे लाल रक्त कोशिकाएं (आरबीसी) नष्ट होने लगती हैं। फलस्वरूप मानव शरीर पर अनेक फ्रकार के कुफ्रभाव पड़ने लगते हैं, जैसे शरीर में आयरन की मात्रा का बढ़ना, हजियों का टेढ़ा व कमजोर हो जाना और बहुत ही गम्भीर मामलों में दिल के रोगों का हो जाना। थैलस्सेमिया लाइलाज रोग है और जो लोग इससे पीड़ित हैं उन्हें नियमित खून चढ़वाना पड़ता है क्योंकि यही एक मात्र फ्रभावी तरीका है 25 साल से थोड़ा अधिक जीने का। पचास फ्रतिशत से अधिक थैलस्सेमिया के रोगी अपने जीवन के 25 बसंत देखने से पहले ही मर जाते हैं।
भारत में 350-400 लाख थैलस्सेमिया कैरियर हैं। चूंकि अपने देश में फ्रिवेंटिव (निरोधक) स्वास्थ चेकअप की न व्यवस्था है और न ही चलन, इसलिए थैलस्सेमिया कैरियर अनजाने में इस जेनेटिक डिसऑर्डर को अपने बच्चों तक पहुंचा रहे हैं। दूसरे शब्दों में हम भयंकर विस्फोट के मुहाने पर बै"s हैं, जबकि इससे बचा जा सकता है। अगर स्त्राr रोग विशेषज्ञ अधिक स्तर्क हो जाएं और फ्रत्येक गर्भवती महिला को थैलस्सेमिया के लिए पीन करें तो इस रोग से बचा जा सकता है।
पीनिंग को कानून तौरपर लाजमी किया जा सकता है, जैसा कि पड़ोसी देश पाकिस्तान में हाल में किया गया है। इस वर्ष फरवरी में पाकिस्तान ने एक विधेयक पारित किया जिसके तहत थैलस्सेमिया रोगियों के रिश्तेदारों के लिए कैरियर टेस्टिंग कराना अनिवार्य है। ऐसी ही व्यवस्था दुबई, अबु धाबी व सऊदी अरब में भी लागू है।
हालांकि अब हमारे देश में थैलस्सेमिया को विकलांग लोगों का अधिकार कानून 2016 के तहत रखा गया है, लेकिन आम जनता से लेकर विशेषज्ञों तक को मालूम नहीं कि इससे क्या हासिल होगा। भारत में 1,00,000 से अधिक थैलस्सेमिया रोगी उपचार के अभाव में 20 वर्ष की आयु से पहले मर जाते हैं। गौरतलब है कि देश में थैलस्सेमिया रोगियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, लेकिन रोगियों को बेहतर हेल्थ केयर उपलब्ध कराने का दायित्व निजी क्षेत्र व गैर सरकारी संग"नों पर ही है।
ऊपर बताया जा चुका है कि थैलस्सेमिया रोगी अपनी जीवन अवधि में वृद्धि केवल नियमित रक्त चढ़वाने से ही कर सकता है, जोकि बहुत महंगी फ्रािढया है। हर थैलस्सेमिया रोगी साल में औसतन एक लाख रूपये से अधिक अपने पर खर्च करने के लिए मजबूर है। रोगियों को 95 फ्रतिशत राशि अपनी जेब से खर्च करनी पड़ती है। सरकार से कोई मदद नहीं मिलती है। अनुमान यह है कि थैलस्सेमिया उपचार पर फ्रति वर्ष 15,000 करोड़ रूपये खर्च होते हैं। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि 10 में से 4 थैलस्सेमिया रोगी बेरोजगार हैं या बहुत कम वेतन पाते हैं क्योंकि इस रोग के कारण हुई अपंगता उन्हें अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य नहीं करने देती। चूंकि थैलस्सेमिया रोगियों को नियमित रक्त की आवश्यकता होती है, इसलिए रक्त की मांग भी बहुत अधिक बढ़ जाती है। थैलस्सेमिया रोगियों के कारण देश के ब्लड बैंकों को केवल इन्हीं के लिए माह में 2,00,000 ब्लड यूनिट चाहिए होते हैं।
इस पृष्"भूमि में थैलस्सेमिया पर राष्ट्रीय नीति की अति आवश्यकता है। इससे न केवल इस रोग के बारे में जागृति फैलेगी बल्कि सभी का उपचार भी सम्भव हो सकेगा और इसको फैलने से रोकने की योजनाएं भी बन सकेंगी। रोगियों को न सिर्फ मुफ्त रक्त चाहिए बल्कि मुफ्त लैब टेस्ट, आयरन नियत्रण दवाएं व अन्य सप्लीमेंटस भी चाहिए, जो कि बहुत महंगी हैं। विरासत में मिलने वाली इस बीमारी का मानव व समाज पर बोझ चिंताजनक आंकड़ों तक पहुंच चुका है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पहल के तौरपर कैरियर पीनिंग और फ्रसवपूर्व टेस्टिंग कम खर्च वाले मल्टी-जीन पैनल टेस्टस से की जा सकती है जोकि राष्ट्रीय स्वास्थ नीति 2017 के बुनियादी लक्ष्यों के भीतर होगी।
अगर ऐसा नहीं किया जायेगा तो समस्या बहुत बढ़ जायेगी। बोन मेरो ट्रांसप्लांट (बीएमटी) के अतिरिक्त थैलस्सेमिया का कोई अन्य उपचार अभी तक सामने नहीं आया है। लेकिन भारत में अधिकतर थैलस्सेमिया के रोगियों के लिए यह आर्थिक रूप से संभव नहीं है और फिर भाई-बहन या अन्य रिश्तेदार से फ्रासंगिक मैच मिलना भी दुर्लभ है। बीएमटी केवल 10 वर्ष तक के बच्चों में ही हो सकती है, इसके बाद यह गम्भीर खतरा है। एक मात्र उम्मीद जीन थैरेपी है, जिसको शुरू करने के लिए ऑनलाइन याचिका के जरिए सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है।
डा. नमिता ए कुमार, जो स्वयं थैलस्सेमिया रोगी हैं, ने सेंटर फॉर हेल्थ एकोलोजिज एंड टेक्नोलॉजी के विजय चंद्रू के साथ मिलकर दुर्लभ रोगों पर भारत की पहली ड्राफ्ट पॉलिसी तैयार की है, जिसे मार्च 2016 में कर्नाटक सरकार को सौंपा गया था। लेकिन इस पर अब तक कोई निर्णय नहीं हुआ है। अगर हो भी जाता है तो इससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि इसका फ्रभाव केवल एक राज्य तक सीमित रहेगा, जबकि थैलस्सेमिया अखिल भारतीय समस्या है। इसलिए जब तक थैलस्सेमिया के संदर्भ