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कैशलेस इकोनॉमी की सीमा

👤 admin5 | Updated on:15 May 2017 4:07 PM GMT
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डॉ. भरत झुनझुनवाला

सुप्रीम कोर्ट में वादों की डिजिटल दाखिले का शुभारंभ करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि डिजिटल इकोनॉमी को स्वीकार करने में लोगों की जड़ मानसिकता आड़े आ रही है। श्री मोदी के वक्तव्य को दो स्तरों पर समझना होगा। एक स्तर है सफेद धन के लेनदेन का। जैसे किसी कंपनी द्वारा श्रमिकों को वेतन दिया जा रहा है अथवा इनकम टैक्स अदा किया जा रहा है। इस प्रकार की सफेद रकम का डिजिटल लेनदेन करना निश्चित रूप से हितकारी है। इन्हें समाज सहज ही अपना भी रहा है। जैसे तमाम कंपनियों ने डिविडेंड को सीधे शेयरधारक के खाते में जमा करने का विकल्प पहले ही उपलब्ध कराया है।

इस प्रकार के लेनदेन को डिजिटल प्लेटफार्म पर ले जाने से अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। मास्टर कार्ड ने अनुमान लगाया है कि कैशलेस इकोनॉमी से देश की आय में 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। केडिट कार्ड कंपनी वीजा ने इस लाभ का अनुमान 70 हजार करोड़ रुपए प्रतिवर्ष लगाया है।

लेकिन दूसरी तरफ रिजर्व बैंक को घाटा लगेगा। जब आप दो हजार रुपए नकद में अपनी तिजोरी में रखते हैं तो इतनी ब्याज-मुक्त रकम रिजर्व बैंक को उपलब्ध कराते हैं। पांच साल रिजर्व बैंक आपको दो हजार रुपए ही वापस करेगा। यदि आपने यह रकम रिजर्व बैंक में किसी खाते में जमा कराई होती तो रिजर्व बैंक आपको लगभग 400 रुपए ब्याज अदा करता। एक नोट छापने का खर्च 10 रुपए मान लें तो रिजर्व बैंक के लिए कैशलेस इकोनॉमी भारी घाटे का सौदा है चूंकि कैश पर ब्याज नहीं देना होता है। डिजिटल इकोनॉमी का अर्थव्यवस्था पर अंतिम प्रभाव फिलहाल स्पष्ट नहीं है।

डिजिटल लेनदेन को अपनाने के पक्ष में दूसरा तर्प अपराध का है। वर्तमान में स्वीडन कैशलेस दिशा में अग्रणी है। इसी देश ने बोफोर्स का घोटाला किया था। लगभग 15 वर्ष पूर्व वर्ल्ड ट्रेड टावर पर अलकायदा के आक्रमण के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आतंक से जुड़े तमाम संदिग्ध खातों को फ्रीज कर दिया था परन्तु इस्लामिक स्टेट ने फिर भी उससे भी अधिक सुदृढ़ वित्तीय व्यवस्था बना ली। कहावत है कि ताले शरीफों के लिए होते हैं, चोरों के लिए नहीं। तात्पर्य यह कि अपराध में लिप्त लोग कैशलेस के तमाम विकल्प ढूंढ लेंगे जैसे सोना, हुंडी, हवाला इत्यादि।

कैशलेस के पक्ष में एक तर्प काले धन का दिया जा रहा है। अमेरिका ने 1969 में 10 हजार, पांच हजार, एक हजार एवं 500 डॉलर के नोटों को निरस्त कर दिया था। इससे नकद डॉलर रखने का प्रचलन कम नहीं हुआ है। आज लगभग 1700 अरब डॉलर के 100 डॉलर के नोट प्रचलन में हैं। इनका बड़ा हिस्सा विदेशों में पूंजी को सुरक्षित रखने के लिए किया जा रहा है। बड़े नोटों को निरस्त करने से काले धन कम नहीं हुआ है। एक अनुमान के अनुसार भारत में केवल छह प्रतिशत काला धन नकद में रहता है। बिल्डरों के दफ्तर में आपको नकद कम ही मिलेगा। काला धन सोना, प्रॉपर्टी अथवा विदेशी बैंकों में रखा जाता है। मैंने कोलकाता, कानपुर एवं मुंबई के चार्टेटड अकाउंटेंटों एवं उद्यमियों से बात की। इनके अनुसार नोटबंदी के बाद नम्बर दो का धंधा नकद में पूर्ववत चालू हो गया है। उद्यमी पेमेंट को कर्मियों के खाते में डलवाकर नकद निकालकर रकम को काला बना रहे हैं। नकद में की गई बड़ी बिक्री कई छोटे-छोटे बिलों में काटी जा रही है। कैशलेस के पक्ष में दिए जाने वाले ये तर्प भ्रामक हैं।

ये तथ्य विकसित देशों को ज्ञात हैं परन्तु वे फिर भी कैशलेस इकोनॉमी की तरफ बढ़ रहे हैं। स्वीडन तथा डेनमार्प लगभग कैशलेस हो चुके हैं। नार्वे तथा दक्षिण कोरिया 2020 तक कैशलेस होने की तरफ बढ़ रहे हैं। इन देशों का कैशलेस जाने का कारण नकारात्मक ब्याज दर है। जापान के केंद्रीय बैंक के पास यदि आप आज एक हजार येन जमा कराएंगे तो एक वर्ष के बाद आपको 999 मिलेंगे। बैंक आपकी रकम को सुरक्षित रखने का 0.1 प्रतिशत नकारात्मक ब्याज वसूल करता है। ऐसी परिस्थिति में कैशलेस लाभप्रद हो सकता है। उस परिस्थिति में यदि आपने दो हजार रुपए रिजर्व बैंक में जमा कराए होते तो रिजर्व बैंक को 400 रुपए ब्याज अदा नहीं करना पड़ता। नोट छापने का खर्च भी बचता। नकारात्मक ब्याज दरों की स्थिति में कैशलेस इकोनॉमी लाभप्रद है। भारत में ब्याज दरें सकारात्मक हैं इसलिए रिजर्व बैंक को जमा रकम पर ब्याज अदा करना होगा जो कि अर्थव्यवस्था पर बोझ होगा। दूसरे, अपने देश में असंगठित क्षेत्र बहुत बड़ा है। अफगानिस्तान एवं सोमालिया जैसे देशों में अपराध नियंत्रण के लिए कैशलेस लेनदेन को बढ़ावा दिया गया है परन्तु इससे वहां के असंगठित क्षेत्र दबाव में आया है। विकास दर गिरी है। विकास एवं रोजगार के अभाव में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ी हैं। अपने देश में ऐसा ही हो रहा है। तीसरे, अपने टैक्स कर्मी अतिभ्रष्ट हैं। यदि ये ईमानदार होते तो नम्बर दो का धंधा होता ही नहीं। उद्यमियों द्वारा नम्बर दो का धंधा अधिकतर इन कर्मियों का हिस्सा बांधने के बाद ही किया जाता है। नकद लेनदेन पर नकेल लगाने में इन कर्मियों को घूस वसूलने का एक और रास्ता उपलब्ध हो जाएगा। चौथे, भारत में सोने की ललक गहरी है। अत नकद पर प्रतिबंध बढ़ने के साथ-साथ सोने की मांग बढ़ेगी। सम्पूर्ण विश्व में ऐसा ही हो रहा है। वर्ष 2006 में सोने की वैश्विक सप्लाई 3252 टन थी जो 2015 में बढ़कर 4306 टन हो गई है। यह सप्लाई बड़ी मात्रा में भारत और चीन को जा रही है।

ब्याज दर सकारात्मक होने से रिजर्व बैंक पर बोझ बढ़ेगा। असंगठित क्षेत्र दबाव में आएगा। इसी में अधिकतर रोजगार बनते हैं। टैक्स कर्मियों का भ्रष्टाचार बढ़ेगा। जैसे बैंक कर्मियों का नोटबंदी के दौरान देखा गया है। हमारे नागरिक सोने की खरीद अधिक करेंगे। यह रकम देश के बाहर चली जाएगी। अत हमें विकसित देशों की कैशलेस चाल का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।

अपने देश में सरकारी कर्मियों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नकेल कसे बिना इन समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता है। सरकार को चाहिए कि एक स्वतंत्र जासूस व्यवस्था बनाए जो भ्रष्ट कर्मियों को ट्रैप करे। हर पांच वर्ष पर इनके कामकाज की जनता से गुप्त मूल्यांकन कराया जाए और अकुशलतम 10 प्रतिशत को बर्खास्त कर दिया जाए। इन भ्रष्ट कर्मियों के हाथ में कैशलेस इकोनॉमी चोर को थानेदार बनाने जैसा है। प्रधानमंत्री के कैशलेस इकोनॉमी को बढ़ावा देने के मंतव्य का स्वागत है। सफेद धन का लेनदेन डिजिटल प्लेटफार्म पर लाभप्रद होगा। लेकिन इस कदम के दूसरे प्रभावों के प्रति प्रधानमंत्री को सजग रहना चाहिए।

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