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केजरीवाल : बद अच्छा बदनाम बुरा?

👤 admin5 | Updated on:15 May 2017 4:18 PM GMT
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भारतीय राजस्व सेवा की पथम श्रेणी की अफसरशाही छोड़कर जन आंदोलनों से गुजरते हुए भ्रष्टाचार मिटाने के उद्देश्य से राजनीति में कदम रखने वाले अरविंद केजरीवाल इन दिनों विभिन्न राजनैतिक दलों के अतिरिक्त मीडिया के लिए भी घोर आलोचना का केंद्र बने हुए हैं। जिस भारतीय मीडिया को अरविंद केजरीवाल में एक सफल आंदोलनकारी, मेगासेसे अवार्ड विजेता, राजनीति की दिशा व दशा बदलने वाला नायक, भ्रष्टाचार जड़ से उखाड़ फेंकने का हौसला रखने वाला एक जुझारू नेता नजर आता था वही मीडिया इन दिनों केजरीवाल में एक असफल, गुस्सैल, तानाशाह तथा जिद्दी व हठधर्मी किस्म का नेता देख रहा है। हालांकि जाहिर तौर पर कई बातें ऐसी हैं भी जिन्हें देखकर ऐसा पतीत होता है कि केजरीवाल में राजनैतिक सूझबूझ व पार्टी को एकजुट रख पाने के हुनर की कमी जरूर है। अन्यथा योगेन्द्र यादव तथा पशांत भूषण तथा पो. आनंद कुमार जैसे काबिल व बेदाग छवि वाले आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य पार्टी को छोड़कर कभी न गए होते। परंतु इसके अतिरिक्त केजरीवाल को लेकर कुछ ऐसी सच्चाइयां भी थीं जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। मिसाल के तौर पर 2012-13 में अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हजारे के साथ मिलकर जनलोकपाल गठित करने हेतु जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा किया था उस स्तर के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोई दूसरी मिसाल भारत में देखने को नहीं मिलती। देश के दूरदराज के इलाकों से किस पकार लाखों सरकारी सेवारत, गैर सरकारी कामगार, छात्र तथा युवाओं का हुजूम अपने पैसे व समय खर्च कर दिल्ली आ पहुंचा और अपने-आप को परेशानी में डालकर देश को भ्रष्टाचार मुक्त कराने के उद्देश्य से अन्ना-केजरीवाल जैसे नेताओं के पीछे एक स्वर में खड़ा हो गया।

हालांकि उस आंदोलन में सुनियोजित तरीके से कई ऐसे लोग भी पवेश कर गए जिनका मकसद भ्रष्टाचार का विरोध करना तो कम कांग्रेस को भ्रष्टाचार के विषय पर बदनाम व गंदा करना अधिक था। माना जाता है कि 2014 में कांग्रेस व संयुक्त पगतिशील गठबंधन की सरकार की पराजय में उस जनलोकपाल आंदोलन की भी बड़ी भूमिका थी। उस आंदोलन में अन्ना-केजरीवाल के साथ दिखाई देने वाले कई नेता ऐसे भी थे जो आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार में मंत्री, सांसद, विधायक अथवा पार्टी पवक्ता के रूप में देखे जा सकते हैं। जबकि देखने में जनलोकपाल आंदोलन कांग्रेस अथवा भाजपा के विरुद्ध न होकर एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन था और जनलोकपाल कानून बनाए जाने के मकसद से किया गया था। क्या यहां यह सवाल मुनासिब नहीं है कि उस आंदोलन के समय जो लाग अन्ना-केजरीवाल के साथ, उनके बगल में बैठकर व उनके मुख्य सेनापति के रूप में जनलोकपाल की हिमायत करते दिखाई देते थे वही नेता आज भाजपा में सत्ता सुख तो भोग रहे हैं परंतु वे भाजपा में लोकपाल कानून बनाए जाने मांग क्यों नहीं उठाते? क्या इससे यह नहीं साबित होता कि उनका मकसद भ्रष्टाचार का विरोध नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी का विरोध करना और कांग्रेस को सत्ता से हटाने की साजिश के तहत इस आंदोलन में शरीक होना मात्र था?

सत्ता और सत्ता समर्थक मीडिया द्वारा एक बार फिर अरविंद केजरीवाल व उनकी आम आदमी पार्टी के विरुद्ध बड़े ही सुनियोजित तरीके से बदनाम करने की साजिश रची जा रही है। किसी भी नेता में जितनी भी कमियां, बुराइयां अथवा नकारात्मक बातें होनी चाहिए वे सभी केजरीवाल में बताई जा रही हैं। यहां तक कि उनकी उपलिब्धयों का बखान तो बिल्कुल नहीं परंतु उनकी नाकामियों को बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है। गोआ तथा पंजाब में आम आदमी पार्टी का सत्ता में न आना कुछ ऐसे पचारित किया गया गोया पंजाब व गोवा में पार्टी ने अपनी सत्ता ही खो दी हो। बजाय इसके कि केजरीवाल की इस बात के लिए पीठ थपथपाई जानी चाहिए थी कि पंजाब में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने वाली पार्टी ने राज्य की 117 सीटों वाली विधानसभा में 23 सीटें जीतकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। इसी पकार गोआ में भी भले ही आम आदमी पार्टी को कोई सीट हासिल न हुई हो परंतु राज्य में आम आदमी पार्टी को एक अच्छा वोट पतिशत जरूर हासिल हुआ।

इसी तरह दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी देखा गया। दिल्ली नगर निगम पर पहले से ही भारतीय जनता पार्टी का कब्जा था। भाजपा अपने चुनाव किस अंदाज से और किस स्तर पर लड़ती है यह पूरा देश देख रहा है चाहे वह नगरपालिका के वार्ड स्तरीय चुनाव हों या किसी राज्य का विधानसभा अथवा लोकसभा का उपचुनाव। भाजपा व उसके रणनीतिकार पत्येक चुनाव को युद्ध स्तर पर लड़ते देखे जा रहे हैं। उनके लिए हर चुनाव उनकी पतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। जाहिर है दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी यही देखा गया। केंद्रीय मंत्रियों व सांसदों से लेकर विभिन्न पदेशों के भाजपाई मुख्यमंत्रियों की पूरी टीम दिल्ली नगर निगम चुनाव में झोंक दी गई। नतीजतन आम आदमी पार्टी भाजपा को नगर निगम से बेदखल नहीं कर सकी। मगर भाजपा की नगर निगम दिल्ली में पुनः वापसी और आप का निगम पर कब्जा न हो पाना भी यूं ही पचारित किया गया जैसे दिल्ली नगर निगम पर पहले आप का परचम लहरा रहा था जो अब भाजपा ने उखाड़ फेंका। हां आम आदमी पार्टी को अपेक्षित सीटें न मिल पाने के बाद पार्टी में केजरीवाल विरोधी जो स्वर बुलंद हुए तथा कई सत्ता लोभियों ने पार्टी का दामन छोड़ा, इन खबरों को मीडिया द्वारा बढ़चढ़ कर पचारित व पसारित जरूर किया गया। जैसे कि इन दिनों केजरीवाल के ही एक और `विभीषण' कपिल मिश्रा के केजरीवाल पर लगाए जाने वाले रिश्वत जैसे सनसनीखेज आरोप को पचारित किया जा रहा है। जबकि दिल्ली में केजरीवाल सरकार अपने सीमित अधिकारों व सीमित संसाधनों के बावजूद तथा दिल्ली के उपराज्यपाल से निरंतर मिलने वाली चुनौतियों व चेतावनियों तथा केंद्र सरकार के असहयोग तथा नकारात्मक बर्ताव के बावजूद दिल्ली में विकास संबंधी कितने कार्य कर रही है, भ्रष्टाचार को नियंत्रण में कर सकने में कितनी सफलता हासिल की है इन बातों का मीडिया कभी जिक करता दिखाई नहीं देता।

अरविंद केजरीवाल ने अपनी अफसरशाही की नौकरी ठुकरा कर शासन व्यवस्था तथा राजनीति से भ्रष्टाचार को जड़-मूल से समाप्त करने का संकल्प लिया है। केजरीवाल ने अदानी व अंबानी जैसे देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों के भ्रष्टाचार को उजागर करने का साहस दिखाया है। अब यहां यह कहने की जरूरत नहीं कि दूसरे दलों के लोग अदानी व अंबानी के साथ किस विनम्रता तथा सौहार्द्र से क्यों और कैसे पेश आते हैं
? यह भी जगजाहिर है कि भारतीय मीडिया के केंद्रीय सत्ता तथा देश के उद्योगपतियों से क्या संबंध हैं तथा इसपर उनके क्या पभाव हैं। ऐसे में क्या भारतीय जनता पार्टी तो क्या कांग्रेस कोई भी नहीं चाहेगा कि अरविंद केजरीवाल जैसा भ्रष्टाचार का विरोध करने वाला `सनकी' व्यक्ति राजनीति में सफलता की मंजिलें तय करे। और अब तो केजरीवाल ने अपनी पत्नी को भी भारतीय राजस्व सेवा की नौकरी छोड़कर सामाजिक कार्यों में सकिय कर दिया है। मुझे नहीं लगता कि वर्तमान पेशेवर राजनीतिज्ञों में भी कोई एक ऐसी मिसाल मिलेगी जो इतने सम्मानपूर्ण व पतिष्ठित सेवाओं को छोड़कर भ्रष्टाचार का विरोध करते हुए देश के बड़े से बड़े उद्योगपतियों व नेताओं की पोल खोलने पर आमादा हो। परंतु मीडिया व नेताओं को केवल केजरीवाल का स्वभाव, उनका चिड़चिड़ापन व तानाशाही तथा एक बड़ी साजिश के तहत उन पर लगने वाले आरोप नजर आ रहे हैं। उनकी कुर्बानी, उनके हौसले व उनके बुलंद इरादे नहीं। गोया केजरीवाल बेवजह ही बद अच्छा और बदनाम बुरा वाली कहावत के पर्याय बनते जा रहे हैं।

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