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ढोंग के सम्मोहन का अंतिम दौर

👤 admin5 | Updated on:25 May 2017 4:06 PM GMT
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राजनाथ सिंह `सूर्य'

अपने कारनामों से सुर्खियों में रहने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आजकल अपने कारनामों के लिए सुर्खियों में छाए हुए हैं। आत्म फ्रशंसक और परनिंदा की पराकाष्"ा के फ्रतीक बन गए अरविंद केजरीवाल की ऐसी हालत क्यों हुई है कि उन्हें अज्ञान बस ही रण में जाना पड़ा है। फ्रतिदिन चार-छह बार फ्रचार माध्यमों से मुखातिब होने वाला व्यक्ति आजकल मीडिया से भागा फिर रहा है। जो व्यक्ति आत्म फ्रशंसक रहा हो, वह अपनी निंदा का फ्रतिरोध दूसरों के सहारे क्यों कर रहा है?

केजरीवाल पहले व्यक्ति नहीं हैं जो आरोपों का उत्तर देने के लिए फ्रवक्ताओं पर निर्भर हो गए हैं। कांग्रेस में तो यह चलन ही बन गया है। उसके शीर्ष नेतृत्व पर जब भी कोई आरोप लगता है, फ्रवक्ता राजनयिक पर विद्वेष की भावना से आरोप लगाने के आरोप से बचाव फ्रयास करता है। लेकिन जैसे कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व कुनबे सहित अदालती निगरानी का पात्र बन गया है, "rक वही स्थिति केजरीवाल की हो गई है। बड़बोलेपन के कारण उन्हें ऐसी अदालती निगरानी का सामना करना पड़ रहा है। जिसके लिए करोड़ों रुपए जो सरकारी है, व्यय करने के बाद भी राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। ढोंग से कुछ समय के लिए लोगों को सम्मोहित किया जा सकता, सदैव के लिए नहीं। यही कारण है कि तमाशा दिखाने वाले जिस गली में एक बार तमाशा दिखा देते हैं, वहां लौट कर नहीं जाते। केजरीवाल भी यही करते रहे हैं। एक गली में तमाशा दिखाकर दूसरी गली (मुद्दे) में पिल पड़ते थे। उसका लाभ उन्हें अभूतपूर्व बहुमत के साथ सत्ता में आने के रूप में मिला। लेकिन जब सत्ता संभालने के बाद भी उन्होंने तमाशबीन की भूमिका में रहना चाहा तो सम्मोहन बेअसर हो गया। ढोंग पर से अपनों ने ही पर्दा उ"ाना शुरू कर दिया। बेपर्दा होकर केजरीवाल को पर्दे के पीछे शरण लेनी पड़ी है, लेकिन उनके लिए आने वाले दिन क"िनाई भरे होंगे, ऐसा आभास मिल रहा है। सम्माहेन की राजनीति की पराकाष्"ा करने वालों की श्रेणी में केजरीवाल एकमात्र खिलाड़ी नहीं हैं। पहले भी ऐसे खिलाड़ी मैदान में उतरते रहे हैं और आज भी उतर रहे हैं। जहां फ्रायः सभी ऐसे सम्मोहक पोल खुलने पर राजनीतिक फ्रतिशोध को हथियार बना रहे हैं। यह पिछले कुछ दशकों में सबसे बड़े सम्मोहक के रूप में स्थापित लालू फ्रसाद यादव `गब्बर चोर सेंध में गावै' जैसा अचारण कर अपने सम्मोहक फ्रभाव को बनाए रखने का उपाम कर रहे हैं। आत्म स्तुति और चारण गान से मुग्धावस्था फ्राप्त व्यक्ति हकीकत से उसी फ्रकार अनभिज्ञ बना रहता है जैसे अपनी औकात का संज्ञान अपनी छाया की लंबाई देखकर करने वाला। ऐसा व्यक्ति अपनी छाया का अनुमान फ्रातः या सायंकाल की छाया देखकर ही लगाता है जब सत्य का सूर्य उससे बहुत दूर होता है। जब सत्य का सूर्य सिर पर हो यदि उस समय की छाया को औकात के रूप में देखा जाए तभी हकीकत समझ में आती है लेकिन उसके लिए नीचे की जमीन देखनी पड़ेगी, आसमान में गूंजने वाले स्तुति गान से सम्मोहित होकर ऐसा नहीं हो सकता। जन समर्थन से आह्लादित होकर उसकी आकांक्षाओं की सही ढंग से समझने की बजाय उसे अपने फ्रति अनुरक्तिमय या जिस जिसने आचरण किया है, उन्हें धूल-धूसरित होना पड़ा है। इसके बावजूद ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। इस विधा की मार्गदर्शक रहीं इंदिरा गांधी जिन्होंने न्यायालय की अवहेलना कर लोकतंत्र को बंधक बनाकर सत्ता में बने रहना चाहा। लेकिन जब सम्मोहन का फ्रभाव समाप्त हुआ तो जिस कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने `इंडिया इज इंदिरा' का नारा दिया था उसने इंदिरा जी को अपने द्वार पर हाजिरी देने के लिए विवश कर दिया। जनता पार्टी तो व्यक्ति अहंकार से सम्मोहित होने वालों की जमात बन गई थी।

नतीजा क्या हुआ। देश में व्यक्तिवादी राजनीति का बोलबाला हो गया। राजनीतिक चेतना लुप्त होने के कारण बढ़ी स्वार्थपरता ने `मेरा देश महान' जैसे उद्घोष में `सौ में निन्यानवे बेइमान' जैसा जोड़कर उसे उपहास का पात्र बना दिया। ऐसे तमाम लोग इस समय न्यायिक निगरानी के दौर में हैं।

नरेंद्र मोदी की सत्ता की अन्य उपलब्धियों की स्वीकार्यता भले ही विवादित हो लेकिन यह निर्विवाद है कि जिस सीबीआई को सर्वोच्च न्यायालय ने कभी पिंजरे का तोता कहा था, वह आजकल बाज की तरह झपट्टा मार रही है। यहां तक कि पिंजरे का फ्रमुख तोता भी उस झपट्टे की चपेट में आ चुका है। लालू यादव और सोनिया गांधी कुनबे सहित और केजरीवाल दल-बल के साथ इस बाज की पकड़ में हैं और क्रांतिदूत बनी ममता बनर्जी हिंसक होकर सत्ता में बने रहने के फ्रयोग के बावजूद शारदा, नारदा और रोजवैली जैसे कारनामों के कारण मंत्रियों और सांसदों के गिरफ्त में आने की संभावनाओं से ग्रसित होकर मोर्चा खोलने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने के लिए रात-दिन एक कर रही हैं। ढोंग के सम्मोहन से लाभान्वित होने वाली जयललिता को मृत्यु के बाद भी राहत नहीं है। दलित की बेटी से दौलत की देवी बन गई मायावती को राज्यसभा में जाने के लिए कहीं से भी साथ पाने के लिए छटपटाहट की बेचैनी ने दबोच लिया है।

सत्ता को सम्पन्नता का साधन मानकर आचरण करने वालों को मोदी शासन से सर्वाधिक परेशानी है। ज्यों-ज्यों सरकार के पारदर्शितायुक्त सबका साथ और सबका विकास का फ्रभाव जनमानस पर छाता जा रहा है। सेक्यूलरिज्म के छद्म आवरण में छिपने के अभ्यस्त लोगों की सम्मोहन नीति दोहित हो रही है। इससे सम्मोहन की राजनीति से लोगों को भ्रमित कर निजी संपत्ति में हजारों गुना इजाफा करने वालों की बेचैनी बढ़ती जा रही है और वह मुद्दों पर मंचीय एकता का एक के बाद एक उपाम कर रहे हैं।

मोदी के सत्ता संभालने पर उन्होंने हिंदुत्व की एकता का शोर मचाकर जो फ्रभाव डालना चाहा, उसका असर दिल्ली और बिहार में भले ही हुआ हो, जहां लोग अब पछता रहे हैं। बाकी देश में पंचायत से लेकर विधानसभा तक में जनमत का जो फ्रकटीकरण होता जा रहा है, उसका संज्ञान लेने की बजाय केजरीवाल वाद-आरोपों की बौछार कर रहे हैं। इस फ्रवृत्ति के लगभग सभी राजनीतिक दल शिकार हो चुके हैं।

नोटबंदी का मामला हो या गौरक्षकों के अतिरेक जैसे संवेदनशील मामलों को उभारकर राष्ट्रपति के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को परास्त कर नामी, बेनामी और बेइमानी से अर्जित संपदा का न्यायिक निगरानी से ध्यान हटाने के फ्रयास करने की कवायद की जा रही है। उसकी असलियत से अवाम अनभिज्ञ नहीं है। छाती पीटकर शोर मचाने से भूचाल नहीं आ सकता। यह बात आजकल भूमिगत हो गए राहुल गांधी से अधिक कौन समझ सकता है। केजरीवाल ने भी भूगत रहना श्रेयस्कर समझा होगा। ममता को भी यह समझ में आ गया है, इसलिए वे सोनिया जी का साथ पाना चाहती हैं। गब्बर पर शायद इसका असर नहीं है। संभव है गब्बर का असर बिहार के स्वरूप पर पड़ जाए। राष्ट्रपति चुनाव में गैर भाजपाई मोर्चे की कवायद ढोंग के सम्मोहन का अंतिम फ्रयास साबित होगी।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं।)

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