Home » द्रष्टीकोण » जन की बात सुनेंगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

जन की बात सुनेंगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

👤 admin5 | Updated on:25 May 2017 4:07 PM GMT
Share Post

खुर्शीद आलम

`फलस्तीन को शांति मिलेगी फलस्तीन नहीं' से दैनिक `इंकलाब' नार्थ के संपादक शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में लिखा है कि सऊदी अरब के इतिहास में सोमवार की रात में यह पहला अवसर था जब कोई जहाज सीधे इजरायल के लिए उड़ा और तेलअबीब के बिन गरयान हवाई अड्डे पर उतरा। वास्तव में यह यात्रा इजरायल की हैसियत में मध्य-पूर्व में और अधिक मजबूत करने के लिए हुई है। स्पष्ट रहे कि 1948 में यही मई का महीना था जब फलस्तीनी मुसलमानों को ताकत और दौलत के बल पर इजरायली फौज ने बाहर निकाला और वहां एक नस्ली सरकार गठित की। वह दिन है और आज का दिन है इजरायल को हर लिहाज से मदद की जा रही है। अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा इजरायल की इस गैर-कानूनी सरकार को मान्यता दे रखी है। सिर्प एक ईरान है जो इसके रास्ते की रुकावट है। दिलचस्प बात यह है कि ईरान और इजरायल के बीच न तो कोई सीमा विवाद है, न पानी बंटवारे का कोई झगड़ा है, न दोनों के बीच व्यापारिक मनमुटाव है। ईरान की फलस्तीन से दुश्मनी की वजह सिर्प यह है कि वह इस राज्य के खात्मे और सभी बेवतन फलस्तीनियों की घर-वापसी का इच्छुक है। सोमवार को अमेरिकी राष्ट्रपति ने सिर्प बेवकूफ बनाया। जब नेतनयाहू के साथ मुलाकात की तो यरुशलम को इजरायल की राजधानी की बात स्वीकार की और जब महमूद अब्बास से मुलाकात की तो इजरायल और फलस्तीन के बीच शांति प्रयासों का वादा किया लेकिन यह नहीं कहा कि फलस्तीनियों की सरकार बनवाएंगे।

योगी सरकार की कार्यप्रणाली पर चर्चा करते हुए `रोजनामा खबरें' ने लिखा है कि जिस तरह इस सरकार द्वारा रहस्योद्घाटन हो रहे हैं उससे ऐसा महसूस हो रहा है कि पहली बार कोई ईमानदार सरकार आई है अन्यथा इससे पहले सब बेइमान थे और देश को लूट रहे थे। अब खबर आई है कि सरकारी योजनाओं में से 20 फीसदी अल्पसंख्यक कोटा खत्म करने पर विचार हो रहा है। इस बाबत अखिलेश सरकार ने तय किया था कि 85 योजनाओं में अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन को देखते हुए 20 फीसदी कोटा निर्धारित किया था। यह अलग बात है कि इस पर कितना अमल हुआ। वैसे सरकार ने इसका खंडन कर दिया है लेकिन सरकार की नीयत का तो पता चल ही गया। संभव है कि अभी इस पर अमल न किया जाए लेकिन इतना जरूर है कि सरकार के एजेंडे में यह बात आ गई है। इसलिए इस पर भी तलवार चलेगी क्योंकि सरकार तो सबका साथ-सबका विकास चाहती है और किसी का तुष्टिकरण इसके लिए स्वीकार्य नहीं है। सरकार की 50 दिन की कारगरदगी मायूसी भरी है। जनता ने जो उम्मीदें भाजपा सरकार से बांधी थीं वह पूरी होती नजर नहीं आ रही हैं।

`जन की बात सुनेंगे प्रधानमंत्री' से दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है कि सत्ता में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता को बाकी रखने के मकसद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गत तीन साल से मन की बात कर रहे हैं। उनका यह कार्यक्रम हर महीने रेडियो और टीवी पर जनता का ध्यान आकर्षित कराता है। अब इसी क्रम में उन्होंने मन की बात के बाद जन की बात सुनने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री का यह कदम एक स्वागत योग्य पहल है लेकिन उचित यह होगा कि वह समाज के ज्वलंत मुद्दों पर और वर्गों के टकराव पर अपना ध्यान केंद्रित करें और उन्हें हल करने की कोई ठोस रणनीति तैयार करें। याद होगा कि आए दिन शहर के समाचार पत्र न केवल अपराध की खबरों से भरे रहते हैं बल्कि कुछ मामले तो एक पहेली बनकर रह जाते हैं और वह केस न तो कभी हल हो पाते हैं और इनको पुलिस द्वारा हल करना एक टेढ़ी खीर साबित होता है। हाल ही में झारखंड के एक इलाके में बच्चा चोरी के संदेह में छह लोगों को बड़ी बेरहमी के साथ गांव वालों ने पीट-पीटकर मार डाला। ऐसी घटनाओं के बावजूद सरकार क्यों नहीं सचेत होती, यह बड़ा सवाल है। प्रधानमंत्री को पहले दिन से जन की बात सुननी चाहिए थी। तीन साल का समय उन्होंने अपने दिल की बात कहने में बर्बाद कर दिया जिससे कुछ हासिल न हो सका।

`हसन रूहानी की दूसरी पारी' से दैनिक `जदीद खबर' ने लिखा है कि उन्होंने अपनी नीतियों और विदेशी संबंधों को मधुर बनाने की बुनियाद पर शानदार कामयाबी हासिल की। ईरानी जनता ने उनकी सियासी नीतियों और पहल का समर्थन किया। उनके प्रतिद्वंद्वी ईरान के धार्मिक गुरुओं के लोकप्रिय उम्मीदवार इब्राहिम रेसीसी को हार का सामना करना पड़ा। इब्राहिम रेसीसी को सभी कट्टरपंथी उलेमा का समर्थन हासिल था और अपनी मुहिम में रूहानी की आर्थिक नीतियों को चैलेंज किया था और पश्चिम की ओर झुकाव के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चलाई थी लेकिन उन्हें मुंह की खानी प़ड़ी। अब जबकि हसन रूहानी दूसरी पारी के लिए राष्ट्रपति बन गए हैं तो उन्हें नए चैलेंजों से निपटना होगा। पहली पारी में उन्होंने संभलकर पहल की थी। परमाणु चर्चा पर ध्यान केंद्रित किया, विश्व के छह देशोंöअमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी के साथ परमाणु संधि की। कट्टरपंथियों ने इसे पसंद नहीं किया। उलेमा ने जो सामाजिक व्यवस्था बनाई है युवा पीढ़ी इसमें सकारात्मक तब्दीली चाहते हैं। समाज पर आयातुल्ला कहलाने वाले धार्मिक समूह की पकड़ बहुत मजबूत है। हसन रूहानी धीरे-धीरे सुधार ला सकते हैं।

`मलयाना के पीड़ित भी इंसाफ से वंचित' से दैनिक `सहाफत' ने लिखा है कि हाशिमपुरा में जो कत्लेआम हुआ वैसी ही मेरठ के एक और पड़ोसी इलाके मलयाना में हुआ लेकिन 30 साल गुजर जाने के बाद भी इन दोनों घटनाओं में मौत के घाट उतारे जाने वाले 115 मुसलमानों के रिश्तेदारों को अब तक इंसाफ नहीं मिल सका है। मोहम्मद सलीम की उम्र उस समय 16 वर्ष थी जब उसने 13 मई 1987 को देखा कि दंगाइयों का एक समूह जो मार-काट कर रहा था उसमें उसके मां-बाप भी शामिल थे। वह जान बचाने के लिए भागा और अब उस समय की दर्दनाक घटना को बताने के लिए जिन्दा है। मलयाना की तंग बस्ती जहां मुसलमान रहते थे कम से कम 73 लोगों को जान से मारा गया। इससे 24 घंटे पहले पड़ोस के हाशिमपुरा इलाके में पीएसी ने 42 मुसलमानों को मारा था और उनकी लाशें नहर में फेंक दी थीं। लंबे समय से दोनों घटनाओं की जांच लंगड़ा-लंगड़ा कर चल रही है वजह यह है कि फर्स्ट इंफार्मेशन रिपोर्ट (एफआईआर) ही गायब है और बुनियादी काम भी नहीं हो पाया। सुप्रीम कोर्ट को खुद से संज्ञान लेकर बताना चाहिए कि पीड़ितों के साथ इंसाफ के तकाजे कैसे पूरे हो सकेंगे।

`राष्ट्रपति चुनाव ः विपक्ष पर भारी एनडीए' से दैनिक `प्रताप' के संपादक अनिल नरेन्द्र ने अपने संपादकीय में लिखा है कि राष्ट्रपति चुनाव की तिथि 25 जुलाई जैसे-जैसे करीब आ रही है, विपक्ष इस पद का साझा उम्मीदवार तय करने के लिए अधिक सक्रिय हो उठा है। विपक्षी एकता में कई अड़चनें हमें दिख रही हैं, जिनमें सबसे बड़ी अड़चन यह आएगी कि जहां दो विपक्षी दल अरसे से आमने-सामने रहे हों, वे एक पाले में आकर चुनाव लड़ने को कैसे तैयार होंगे? फिर चाहे बंगाल में ममता-लेफ्ट हो, तमिलनाडु में द्रमुक-अन्नाद्रमुक हो, यूपी में सपा-बसपा हो या फिर ओडिशा में बीजेडी-कांग्रेस हो। सैद्धांतिक तौर पर बात करें तो कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष की छह पार्टियों को अपने पाले में करने में सफल रहने पर सत्ताधारी ग्रुप और विपक्ष के बीच मुकाबला कांटे का हो सकता है। बहुमत के आंकड़े को पार करने के लिए एनडीए को सिर्प एक पार्टी या ज्यादा से ज्यादा दो छोटी पार्टियों के समर्थन की जरूरत होगी। विपक्ष की राह कठिन लगती है।

Share it
Top