माले मुफ्त दिले बेरहम
हम सरकार के नहीं जनता के नौकर हैं, उनके सेवक हैं। जनता की सेवा करना ही हमारा धर्म और फर्ज है। अब इन्हीं सेवकों व नौकरों ने सरकार पर दबाव डालकर अपना वेतन 15 हजार से बढ़वाकर 50 हजार रुपये करवा लिया है। अन्य लाभों में भी कई गुना वृद्धि करा ली है। अब हर सांसद को लगभग एक से डेढ़ लाख रुपये महीना मिलेगा। इसमें से वे कितना जनता पर खर्च करेंगे यह तो या तो वे ही जानते हैं या फिर भगवान। जानती तो जनता भी है लेकिन जानकर भी क्या कर सकती है? और उसकी सुनेगा कौन? हद की बात देखिए। संसद में हर मामले पर टकराने वाले सांसद वाक आउट करने वाले सांसद, सदन में मेज कुर्सियां तोड़ने वाले सांसद, पार्लियामेंट में ही उन पार्लियामेंट्री शब्दों का इस्तेमाल करने वाले सांसदों की फौजों में तो पहले ही करोड़पतियों की फौज भरी पड़ी है। उनके पास आय के वे साधन भी मौजूद हैं जिनकी परमिशन उन्हें कानून भी नहीं देता। ऐसा कई बार सुनने में आया है कि अनेक सांसद तो उन्हें मिले आवास तथा गैराज तक किराये पर दे देते हैं या फिर घुमा-फिराकर उनके आय का इंतजाम कर लेते हैं। उनकी साज-सज्जा पर ही लाखों रुपये का खर्च आ जाता है। एक सर्वे के अनुसार हर साल लोकसभा तथा राज्यसभा के कुल लगभग सवा सात सौ सदस्यों पर सरकार को लगभग 400 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे। ये हाल तो तब है जब इस देश की गिनती गरीब देशों में की जाती है। इन जनता के सेवकों को तो यह भी शायद पता नहीं कि जिनकी वे नुमाइंदगी कर रहे हैं उन्हें तो दो वक्त भरपेट रोटी भी नहीं मिलती। वेतन भी प्राइवेट सेक्टर में 5 से 15 हजार के बीच ही बड़ी मुश्किल से मिलता है। जरा कल्पना कीजिए कि पांच हजार रुपये मकान का किराया, दो ढाई हजार रुपये बिजली, पानी के बिल, एक हजार रुपये का कम से कम दूध, एक हजार रुपये साग-सब्जी पर ही खर्च हो जाते हैं एक दिल्ली वासी के। अब स्कूल की फीस वर्दी कपड़े साबुन पेस्ट, जूता, पालिश, बीवी का मेकअप का सामान, किराया भाड़ा बहन-बेटियों पर खर्च आने-जाने वालों का खर्च, हारी बीमारी का खर्च, दिन में चाय-पानी का खर्च, जैसे रोजमर्रा के खर्च तथा सरकारी टैक्सों की अदायगी के खर्च इनमें शामिल नहीं हैं। क्या कभी इन जनता के नौकरों का ध्यान उन लोगों की तरफ भी गया है जिनको जीने के लिए लोहे के चने चबाने पड़ रहे हैं। उन्हें सिर्प अपना अपना दिख रहा है। उन्होंने क्या कभी इतनी एकता प्राइवेट सेक्टर में शोषण का शिकार हो रहे गरीब युवाओं का वेतन बढ़वाने में भी दिखाई है? दिखाने की बात छोड़िए कभी सोचा भी है? नहीं, और सोचेंगे भी नहीं। क्या लेना-देना है उन्हें गरीब लोगों से? पांच साल में एक बार ही तो उनके दरवाजे पर जाना है, सो चले जाएंगे। मगरमच्छी आंसू बहाकर फिर से पांच साल के लिए उन्हें बेवकूफ बनाकर अपना उल्लू सीधा कर लेंगे और इसमें उन्हें महारथ हासिल है ही। सबसे ज्यादा शोरगुल मचाने वाले लालू प्रसाद के पास क्या धन दौलत की कमी है? अकूत सम्पत्ति के मालिक हैं लेकिन फिर भी चाहते हैं कि लूट लो सरकार से जितना लूट सको। यह कोई नहीं सोचता कि जितना पैसा उनको मिलेगा वह इस गरीब जनता के लहू को पीकर सरकार उनको देगी पर इसे क्या? उन्हें तो पैसा चाहिए। नहीं दोगे तो वे संसद नहीं चलने देंगे। संसद चलानी है तो पैसा दो और सरकार दे रही है क्योंकि सरकार खुद भी तो शामिल है न इस खेल में। ठीक है भाईöमुफ्त का चन्दन घिस मेरे नन्द और दवा के घिस। तेरे बाप का क्या जा रहा है। -इन्द्र सिंह धिगान, किंग्जवे कैम्प, दिल्ली।