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रिश्ता और सियासत

👤 | Updated on:19 Feb 2017 12:07 AM GMT
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     नाम और सियासत की परिवारिक जंग में अंततः अखिलेश यादव को फतह मिली। चुनाव आयोग के ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया वैसे यह अप्रत्याशित नहीं लग रहा था। एक तो दस्तावेज के आधार पर अखिलेश खेमे का दावा बहुत था दूसरे सियासी मौसम के जानकारों का व्यवहार भी ऐसे ही फैसले की ओर इषारा कर रहा था। अपने को मुलायमवादी घोषित करने वाले चर्चित नेता फैसला आने के पहले लंदन रवाना हो गए। चलते-चलते यह भी बता गए कि वह मार्च तक विदेश में रहेंगे। जबकि कुछ दिन से वह अपने मुलायमवादी होने का फर्ज बड़ी सक्रियता से निभा रहे है। इसी प्रकार प्रायः प्रत्येक विधानसभा चुनाव में पाला बदलने को मशहुर एक नेता बड़ी मुस्तैदी से अखिलेश खेमे में जमे थे। उनकी गिनती इस खेमे के रणनीति कारो में हो रही थी। ऐसे कतिपय नेताओं के फैसला पूर्व व्यवहार से यह तय करता है कि मुलायम बाजी हारने वाले है। समाजवादी पार्टी के इस प्रकरण ने कई दिलचस्प तथ्य भी उजागर किया है अभी तक चुनावी राजनिति में परिवाद का रिकार्ड मुलायम के नाम था। एक साथ किसी परिवार के एक साथ इतने लोग विभिन्न पदो पर नही थे। रिकार्ड के बाद विडंबना देखिए उसी परिवारवाद ने मुलायम सिंह को कहीं का नहीं छोड़ा। उन्होंने अपनी राजनीति राम मनेहर लोहिया के सान्निध्य में शुरू की थी। उस समय लोहिया राजनीति में वंश परंपरा का मुखर विरोध कर रहे थे। उनका यह विचार समाजवाद के सिद्धांतों में शामिल हो गया। इसके बाद अनेक समाजवादी नेता हुए जिन्होंने अपने परिवार के सदस्यों की राजनिति में आने से रोक दिया। मुलायम सिंह यादव ने दशकों तक ऐसे ही समाजवादियों के साथ कार्य किया। लेकिन जब समाजवाद में मुलायम का दौर आया तो मान्यतों सिद्धांत बदल गए। उन्होंने परिवारवाद के लिए सभी दरवाजे खोल दिए। ब्लॉक प्रमुख सेल लेकर देश की सर्वोच्च पंचायत तक जहां संभव हुआ। परिवार के सदस्यों को तरजीह दी गई। पिछले लोकसभा चुनाव में तो समाजवाद का बिल्कुल नया स्वरूप व रंग दिखाई दिया। राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादियों ने कभी समाजवाद की कल्पना तक नहीं की होगी। लोकसभा में मुलायम सिंह सहित पांच सदस्य पहुंचे। ये सभी उनके परिजन थे। कई बार मुलायम ने इस बात पर क्षोभ भी व्यक्त किया। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार भी वहीं थे। जो क्षेत्र सपा के गढ़ माने जाते है। वहां चुनाव लड़ाने के लिए क्या कोई समाजवादी नहीं मिला। तब पुत्र वधु-भतीजे ही नही पौत्र को चुनाव लड़ाया गया। ये सभी विजयी हुए। यदि खाटी व संघर्षशील समाजवादियों को तरजीह दी जाती है। तो शायद कुछ लोग आज भी मुलायम के साथ होते। लेकिन जो परिजन उनकी कृपा से सांसद बने, उन्होंने भी साथ छोड़ दिया। राज्यसभा में भी नेता पद देने के लिए मुलायम ने अपने ही एक भाई पर विश्वास किया फिर विडंबना देखिए, इन्हीं ने समाजवादी पार्टी का विशेष अधिवेशन बुलाया। इन्हीं ने मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाने का प्रस्ताव पेश किया। इन्हीं ने चुनाव पार्टी के नाम व निशान हेतु दस्तावेज, हलफनाओं का अंबार लगा दिया। जाहिर है यह मुलायम के लिए आत्म चिंतन का विषय होना चाहिए। उन्होंने अपने समाजवादी चिंतन में जिस प्रकार परिवारवाद को इस हद तक तरजीह दी। उसको ऐसे ही अंजाम तक पहुंचना ही था। यह भी नहीं समझना चाहिए कि परिवाद विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो गया। किसकी महत्वाकांक्षा कब तक शांत रहेगी। यह कहा नही जा सकता है। मुलायम सिंह यादव को एक अन्य संबंधित विषय पर आत्मचिंतन करना चाहिए। उन्होंने विधानसभा चुनाव के पहले ही अखिलेश यादव को बतौर उत्तराधिकारी पेश किया था। बहुमत मिलने के बाद उन्होंने अपने पुत्र को न केवल मुख्यमंत्री बनाया वर्न प्रदेशाध्यक्ष की कमान भी सौंप दी। एक प्रदेशाध्यक्ष तक सीमित क्षेत्रीय दल में प्रदेशाध्यक्ष का महत्व होता है। खास तौर पर जब पार्टी परिवार अधारित हो और प्रदेशाध्यक्ष मुखिया का पुत्र तो कहना क्या। इस प्रकार सरकार व संग"न दोनों मुलायम ने उत्तराधिकारी सौंप चुके थे। उत्तराधिकार सौंपने के बाद एक मर्यादा का पालन करना होता है। एक सीमा से अधिक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन मुलायम का परिवारवाद इस उत्तराधिकार तक सीमित नहीं था। वह मोह से मुक्त नहीं होना चाहते थे। इसलिए उत्तराधिकारी भी आधा-अधूरा ही रहा। मंत्री परिषद निर्माण मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार माना जाता है। क्या मुलायम ने ऐसा होने दिया। इसी प्रकार मुख्यमंत्री कार्यालय में सचिवों की तैनाती उन्हीं का विशेषाधिकार होता है। क्या मुलायम ने इसमे भी हद से बढ़कर  हस्तक्षेप नहीं किया। क्या कुछ खराब छवि वाले मंत्रियों को मुलायम का वरदहस्त प्राप्त नहीं था। परिवार आधारित अन्य दलों की भांति मुलायम ने केवल अखिलेश को आगे किया होता, तो आज इन्हें इस अप्रिय स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। तब वह राजनितिक उत्तराधिकारी आसानी से सौंप देते सकते थे। लेकिन मुलायम अन्य परिजनों के प्रति भी राजनितिक रूप से उदार बने रहे। इससे टकराव की भूमिका तो बन ही रही थी। इसी प्रकार अखिलेश को भी अपने पूरे कार्यकाल के बारे में आत्मचिंतन करना चाहिए। क्या मुलायम सिंह की आधे-अधूरी विरासत को साढ़े चार वर्षों तक अखिलेश ने सहजता से स्वीकार नही कर लिया था। क्या वह इस व्यवस्था में उन्होंने अपने को पूरी तरह ढाल नहीं लिया था। आरोपों से घिरे एक चर्चित मंत्री को हटाने का फैसला कब लिया गया। इन मंत्री को हटाने का फैसला लिया गया। इन मंत्री को हटाने या कौमी एकता दल के विलय वाला प्रकरण परिवार में तनाव बढ़ने के बाद ही सामने क्यों आया। इस समय तक दोनों खेमे एक-दूसरे को मात देने की चाल चल रहे है। क्या यही सही नहीं कि शुरुआत में ही मुख्यमंत्री ने एक दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री के कहने पर महिला आईएएस को निलंबित किया था। बाद में जो प्रकरण आया वह नियमानुसार व ईमानदारी से कार्य करने वाले अधिकारियों को हत्तोत्साहित करने वाला था। जब कोई शासक जाने-अनजाने इस प्रकार संदेश देता है तो अच्छे प्रशासनिक आधिकारियों का मनोबल गिरता है। एक बार ऐसी छवि बन जाती है, तब उससे छुटकारा आसान नहीं होता। इसी प्रकार कानून व्यवस्था व जाति वाद के आरोप इस सरकार लगे। क्या समय रहते सरकार को इस छवि से मुक्त कराने के कारगर प्रयास किए गए। प्रायः सत्तापक्ष अपनी वाहवाही में अन्य सरकारों से कार्यकाल आधार पर तुलना करते है। बतौर प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर ने चार महीने बनाम 40 वर्ष नारा दिया था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। आंतरिक या पारिवारिक व्यवस्था को सहजता से स्वीकार किया है। -नीलम वर्मा, विकासपुरी, दिल्ली। रायसीना संवाद में संप्रभुता के सम्मान पर जोर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने `रायसीना संवाद' में बोलते हुए कहा है कि भारत अपने पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध बनाए रखना चाहता है। इस नाते मोदी ने न सिर्फ पाकिस्तान को उसकी बेजा हरकतों के लिए चेताया, बल्कि चीन को भी नसीहत देते हुए कहा कि यदि वह भारत के हितों का ख्याल रखेगा तो भारत की प्रगति चीन के लिए बाधा नहीं बनेगी। बल्कि इससे बीजिंग को फायदा ही होगा। इस दृष्टि से भारत और चीन दोनों को ही एक-दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करने की जरूरत है। लिहाजा अच्छा है पाकिस्तान आतंक का रास्ता छोड़े और चीन भारत से रिश्तों में संवेदनशीलता बरते। बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत की शक्ति जिस तरह से बढ़ रही है, उस परिप्रेक्ष्य में भारत ने दोनों पड़ोसियों को अइना दिखाने का काम किया है। चीन और पाकिस्तान की ओर से भारत की चुनौती लगातार बढ़ रही है। बीते साल नवम्बर में कानपुर के पास जो भीषण रेल दुर्घटना हुई थी, उसमें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का षड्यंत्र होने का खुलासा हुआ है। बिहार में गिरफ्तार एक व्यक्ति ने काबूल किया है कि उसी ने रेल पटरी को उड़ाया था। इसके बदले में उसे आईएसआई ने मोटी रकम दी थी। भारत में पाकिस्तान द्वारा निर्यात किए जा रहे आतंकवाद का यह एक नया रूप है। देश में अस्थिरता फैलाने के इस नए जघन्य तरीके से भारत हैरत में है। दूसरी तरफ चीनी मीडिया ने दावा किया है कि यदि भारत और चीन के बीच जंग शुरू होती है तो चीनी सेना महज 48 घंटों के भीतर नई दिल्ली पहुंच कर कोहराम मचा सकती है। इतना ही नहीं मीडिया का यह भी दावा है कि चीनी सैनिकों को दिल्ली भेजने में पैराशूट उपलब्ध करा दिए जाए तो केवल 10 घंटे में ही सैनिक दिल्ली पहुंच जाएंगे। साफ है, भारत और चीन भले ही सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे के साथ शांति और मित्रतापूर्ण संबंधों को मजबूत करने की पैरवी करते हों, लेकिन अकसर चीनी मीडिया और सैनिक भारत को धमकाने का कोई मौका नहीं चूकते हैं। इसीलिए चीन हर बार आतंकी मसूद की ढाल बनने में भी कोई संकोच नहीं करता है। दरअसल चीन भारत के बरक्श बहरूपिया का चोला ओढ़े हुए है। एक तरफ वह पड़ोसी होने के नाते दोस्त की भूमिका में पेश आता है, पंचशील का राग अलापता है और व्यापारी बन जाता है। किंतु पंचशील के सिद्धांतों को उल्लघंन करने से बाज नहीं आता है। यही वजह है कि वह अरुणाचल पर अपना दावा "ाsकता है। अरुणाचल को अपने नक्शे में शामिल कर लेता है। अपनी वेबसाइट पर भारतीय नक्शे से अरुणाचल को गायब कर देता है। साथ ही उसकी यह मंशा भी रहती है कि भारत विकसित न हो, उसके दक्षिण एशियाई देशों से द्विपक्षीय संबंध मजबूत न हो और न ही चीन की तुलना में भारतीय अर्थवयवस्था मजबूत हो। इस दृष्टि से वह पाक अधिकृत कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड और अरुणाचल में अपनी नापाक मौजदूगी दर्ज कराकर भारत को परेशान करता रहता है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए रासीना संवाद में भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर ने चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) पर कड़ा विरोध जताते हुए कहा है कि भारत को इस परियोजना पर ऐतराज है। क्योंकि ये गलियारा पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है, जो भारत का क्षेत्र है। इस लिहाज से चीन को दूसरों की संप्रभुता को भी समझने की जरूरत है। चूंकि यह परियोजना भारत की सलाह लिए बिना शुरू की गई है, इसलिए इसको लेकर हमारी संवेदनशीलता और चिंताएं स्वाभाविक है। दरअसल चीन का लोकतंत्रिक स्वांग उस सिंह की तरह है जो गाय का मुखौटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्राणियों का शिकार करने करता है। इसका नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूर्वोत्तर सीमा में अक्साईचिन की 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। बावजूद अरुणाचल की 90 हजार वर्ग किमी पर दावा जताता रहता है। कैलाश मानसरोवर जो भगवान शिव के आराध्य स्थल के नाम से हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में दर्ज हैं, सभी ग्रंथों में इसे अखंड भारत का हिस्सा बताया गया है। लेकिन भगवान भोले भंडारी अब चीन के कब्जे में हैं। -सुरेश शर्मा, लक्ष्मीनगर, दिल्ली।  

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